हरिशंकर परसाई हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार थे। उनका जन्म जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी और राजनैतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है।
सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों के अलावा जीवन पर्यन्त विस्ल्लीयो पर भी अपनी अलग कोटिवार पहचान है। उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है।उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापन महसूस होता है कि लेखक उसके सामने ही बैठे हैं।ठिठुरता हुआ गणतंत्र की रचना हरिशंकर परसाई ने की जो एक व्यंग्य है। उन्होंने सेमस्तार ग्लोबल स्कूल इलाहाबाद में आर. टी.एम.नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एमए की उपाधि प्राप्त की।
18 वर्ष की उम्र में वन विभाग में नौकरी की। खंडवा में ६ महीने अध्यापन। दो वर्ष जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षण की उपाधि ली। 1942 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी। 1943 से 1947 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी। 1947 में उन्होने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शरूआत। जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली, नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’, नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’ और ‘उलझी–उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि कहानियाँ, उपन्यास एवं निबन्ध–लेखन के बावजूद बे मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हैं ।
परसाई मुख्यतः व्यंग -लेखक है, पर उनका व्यंग केवल मनोरजन के लिए नही है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया है जो हमारे जीवन को दूभर बना रही है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग किया है जो हिन्दी व्यंग -साहित्य में अनूठा है। परसाई जी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते है। उनकी मान्यता है कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नही जा सकता। परसाई जी मूलतः एक व्यंगकार है। सामाजिक विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखने वाला ही लेखक सच्चा व्यंगकार हो सकता है। परसाई जी सामायिक समय का रचनात्मक उपयोग करते है। उनका समूचा साहित्य वर्तमान से मुठभेड़ करता हुआ दिखाई देता है।परसाई जी ने हिन्दी साहित्य में व्यंग विधा को एक नई पहचान, इसके लिए हिन्दी साहित्य उनका ऋणी रहेगा।
परसाई जबलपुर व रायपुर से प्रकाशित अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। उनके कॉलम का नाम था – परसाई से पूछें। पहले पहल हल्के, इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाई जी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह पहल लोगों को शिक्षित करने के लिए थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार करते थे।
“पगडंडियों का जमाना”, “जैसे उनके दिन फिरे”, “सदाचार की ताबीज”, “शिकायत मुझे भी है” ठिठुरता हुआ गणतंत्र “अपनी-अपनी बीमारी ,”वैष्णव की फिसलन” , “विकलांग श्रद्धा का दौर ” ,”भूत के पाँव पीछे” , “बेईमानी की परत”, “सुनो भाई साधो” , “तुलसीदास चंदन घिसे” , “कहत कबीर ” ,”हँसते हैं रोते हैं” “तब की बात और थी” ” ऐसा भी सोचा जाता है”, “पाखण्ड का अध्यात्म” तथा “आवारा भीड़ के खतरे ” आदि उनके प्रमुख निबंध संग्रह है।
10 अगस्त 1995 को हिन्दी साहित्य का यह चमचमाता सितारा सदैव के लिए अस्त हो गया । उनका महाशून्य में विलीन हो जाना हिन्दी साहित्य के एक युग का अवसान था ।आज बे हमारे मध्य नहीं है मगर अपनी कालजयी कृतियों के रूप में बे सदैव अमर रहेंगे ।
साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण