कहानी “समय का चक्र”

कल्जीखाल की पहाड़ियों पर धूप पसर आई थी। जसमतिया धूप का आनन्द लेती रही। अक्टूबर शुरू हो गया था, इसलिए हवा में ठंडक बढ़ गई थी। जसमतिया को धूप में बैठना बड़ा अच्छा लग रहा था। मगर धूप में बैठने से काम चलने वाला नहीं था। जसमतिया उठी। उसने दुकान खोलकर अंगीठी सुलगाई और फिर दुकान झाड़ने पोंछने लगी।

कल्जीखाल एक पहाड़ी कस्बा है। नाम कस्बे का है, मगर दो-चार सरकारी दफ्तर, एक अदद सरकारी स्कूल, एक अस्पताल और दस-पन्द्रह घर, यही सब मिलकर कस्बा बनता है। नीचे गाँव के कुछ लोगों ने होटल और चाय की दुकानें खोल रखी हैं। ये लोग सुबह होते ही गाँव के लिए सामान लेकर आ जाते हैं। दिन भर होटल और चाय की दुकान चलाते हैं और दिन ढलते ही गाँव वापस लौट जाते हैं।

चैराहे पर बनी इन्हीं दुकानों में से एक दुकान जसमतिया की है। जसमतिया कल्जीखाल के पास ही बसे एक गाँव में रहती है। जसमतिया दिन भर यहाँ ग्राहकों को चाय-पकौड़ी बेचती है। जसमतिया की लड़की चम्पा जसमतिया के कामों में हाथ बंटाती है। यही दुकान माँ-बेटी के जीवन-यापन का एकमात्र सहारा है।
कहने को तो जसमतिया का मर्द दयाला भी है। मगर दयाला का होना या न होना बराबर ही है। वह दिन भर शराब के नशे में धुत रहता है। कभी मन ठीक हुआ तो दयाला जंगल से लकड़ी काट लाया, नहीं वह भला और उसकी कोठरी भली। चैबीसों घंटे दयाला कोठरी में ही कम्बल ओढे़ पड़ा रहता है। जसमतिया ज्यादा कहती-सुनती है तो दयाला गुस्से में जसमतिया को रुई की तरह धुन डालता है। शुरु-शुरु में तो मार सहकर भी जसमतिया ने दयाला को समझाने की हर सम्भव कोशिश की थी, मगर दयाला नहीं सुधरा तो नहीं सुधरा। अब तो जसमतिया ने दयाला से बोलना ही छोड़ दिया है।

बारह बज गए थे। कल्जीखाल के चैराहे पर लोगों की आमद-रफ्त जारी थी। जसमतिया की दुकान पर भी ग्राहक आ-जा रहे थे। जसमतिया अपने को काम में व्यस्त रखने की कोशिश कर रही थी, मगर उसका मन काम में नहीं लग रहा था। उसके चेहरे पर चिन्ता की गहरी लकीरें साफ पढ़ी जा रही थीं। जसमतिया की इस परेशानी की जड़ पाण्डेय था।

यह पाण्डेय कौन है-उसके बारे में जानने के लिए हमें पीछे जाना होगा। आज से पन्द्रह साल पहले वह कहीं से आकर जसमतिया के गाँव में बस गया था। जब वह आया था तो सामान के नाम पर उसके पास लोहे का एक टूटा हुआ बक्सा और दो-तीन जोड़े कपड़े थे। मगर आज पाण्डेय लाखों की सम्पत्ति का मालिक था।

पाण्डेय का पूरा नाम दीनानाथ पाण्डेय था। कहा जाता है-‘यथा नाम तथा गुणाः’ परन्तु पाण्डेय के बारे में यह कहावत बिलकुल उल्टी बैठती थी। पाण्डेय को दया-माया छू तक नहीं गई थी। वह बेहद चालाक, काइयाँ और स्वार्थी किस्म का आदमी था। ‘कोई मरे या जिए बस अपना उल्लू सीधा हो’ के सिद्धान्त का वह कायल था।

पाण्डेय आस-पास के गाँवों में रुपये के लेने-देने का धंधा करता था। सौ के कर्ज़ को हज़ार बना देना पाण्डेय के बाएँ हाथ का खेल था, एक बार पाण्डेय से जो ऋण ले लेता था, फिर उसका पाण्डेय के ऋण से उऋण हो पाना कठिन हो जाता था। फिर भी लोग मजबूरी में पाण्डेय से कर्ज़ लेते थे।

कर्ज़ वसूल करने के लिए पाण्डेय ने कुछ गुंडे पाल रखे थे। उनके कारण आस-पास के गाँवों में पाण्डेय की तूती बोलती थी। राजनीतिक नेताओं के साथ भी पाण्डेय का उठना-बैठना था, इसलिए सरकारी अधिकारी, कर्मचारी भी पाण्डेय से दबते थे। कुल मिलाकर पाण्डेय का अच्छा दबदबा था।

जसमतिया ने जब यह दुकान खोली थी तो पाण्डेय से पाँच हज़ार रुपये कर्ज़ लिए थे। इन पाँच सालों में जसमतिया ने किसी तरह पाण्डेय के चार हज़ार रुपये निपटा दिये थे। फिर भी असल और सूद मिलाकर तीन हज़ार रुपये का हिसाब अभी बाकी था।

पाण्डेय बड़ा रसिया स्वभाव का था । काफी दिनों से उसकी नज़र जसमतिया की जवान बेटी चम्पा पर थी। पाण्डेय जब-तब तकाज़ा करने के बहाने जसमतिया की दुकान पर आ धमकता और घण्टों चम्पा से छेड़छाड़ करता। लाचार जसमतिया खून का घूँट पीकर रह जाती।

इधर कुछ दिनों से पाण्डेय ने जसमतिया के लिए एक नई मुसीबत खड़ी कर दी थी। उसने रट लगा रखी थी कि जसमतिया या तो मेरा रुपया इसी समय चुका
दे नहीं तो अपनी बेटी चम्पा की शादी मेरे साथ कर दे।

पाण्डेय जानता था कि जसमतिया एक साथ इतना रुपया अदा नहीं कर पाएगी, इसीलिए उसने ऐसी बेढब शर्त रखी थी।

जसमतिया यह सुनकर घबरा उठी थी। उसने सोचा-कहाँ सोलह वर्ष की फूल सी चम्पा और कहाँ थुलथुल पेट तथा चेचक के दागों से भरे चेहरे वाला खूसट पाण्डेय! दोनों का कहीं कोई मेल नहीं था। जसमतिया किसी भी कीमत पर चम्पा की शादी पाण्डेय जैसे कसाई के साथ नहीं करना चाहती थी। मगर जसमतिया को पाण्डेय के चंगुल से निकलने का कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था।

काफी सोच-विचार के बाद जसमतिया ने तय किया कि जैसे भी हो जल्दी से कोई लड़का देखकर चम्पा की शादी कर दी जाए। ना रहेगा बांस, ना बजेगी बाँसुरी। उसने अनुनय-विनय करके पाण्डेय से एक महीने की मोहलत ले ली। उसने सोचा कि वह इसी महीने के अन्दर चुपचाप चम्पा के हाथ पीले कर देगी, फिर बाद में चाहे पाण्डेय मुझे मार ही क्यों न डाले।

चम्पा देखने-भालने में सुन्दर और कद-काठी की अच्छी थी। इसलिए लड़का ढूँढ़ने में जसमतिया को ज़्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी। थोड़ी भाग दौड़ के बाद उसकी रिश्तेदारी में ही एक लड़का मिल गया। लड़का किसी प्राइवेट फैक्ट्री में काम करता था। आठ सौ रुपये उसकी पगार थी।

लड़के वाले शादी में दोनों ओर का खर्चा उठाने को तैयार हो गये। इसलिए बात पक्की हो गई। शादी की तिथि भी छंट गई। शादी एक महीने बाद की पड़ रही थी। जसमतिया को जल्दी थी मगर क्या करती इससे पहले कोई मुहूर्त ही नहीं निकल रहा था।

जसमतिया ने यह सब काम काफी गुपचुप तरीके से किया था। उसने गाँव में किसी को इस बात की कानो-कान खबर नहीं होने दी थी। परन्तु पता नहीं कैसे इसकी उड़ती-उड़ती भनक पाण्डेय तक जा पहुँची। इस फिर क्या था, वह आग बबूला हो उठा।

उसी समय वह जसमतिया की दुकान पर आ धमका था। पाण्डेय का भयानक चेहरा गुस्से में और भी भयानक लग रहा था। काफी देर तक वह अपनी लाल-लाल आँखों से जसमतिया को घूरता रहा। फिर वह दहाड़ा-“जसमतिया, तूने मेरे साथ धोखा किया है अब मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा या तो तू तीन दिन के भीतर मेरे रुपये चुका दे नहीं तो चम्पा की शादी मेरे साथ कर दे। अगर तू ऐसा नहीं करेगी तो तीसरे दिन मैं चम्पा को ज़बरदस्ती उठा ले जाऊँगा।“ पाण्डेय धमकी देकर चला गया था।

जसमतिया को तो मानो साँप सूँघ गया था। उसके शरीर में काटो तो खून नहीं। पाण्डेय की धमकी से जसमतिया भय से काँप उठी। औरत ज़ात बेचारी अकेली क्या करती! उसने इस बारे में दयाला को भी पूरी बात बताई। उसे उम्मीद थी कि दयाला ज़रूर कुछ न कुछ करेगा। मगर दयाला ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उसने इस कान सुना और उस कान निकाल दिया।

जसमतिया को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे! कभी-कभी गुस्से में वह सोचती कि पत्थर उठाकर पाण्डेय और दयाला दोनों को मार डाले और खुद किसी कुएँ, पोखर में कूद कर अपनी जान दे दे। मगर चम्पा के मोह के कारण वह ऐसा भी नहीं कर सकती थी।

आज पाण्डेय की धमकी का आखिरी दिन था, इसलिए बड़ी चिन्तित और भयभीत थी। वह लगातार इसी बारे में सोचे जा रही थी। तभी दुकान पर दो ग्राहक आ गए। जसमतिया ने चम्पा से दो कड़क चाय बनाने को कहा। खुद वह पकौड़ी तलने लगी।

ग्राहकों को निपटाकर अभी जसमतिया फारिग ही हुई थी कि उसे सामने वाली सड़क पर पाण्डेय तीन-चार गुंडों के साथ आता दिखाई दिया। उसको देखते ही जसमतिया के प्राण सूख गए।

पाण्डेय के हाव-भाव बदले हुए थे। उसने आते जसमतिया से गरज कर पूछा-“अभी तक रुपयों का इंतजाम हुआ या नहीं ?“

“अभी तक तो नहीं हो पाया है पाण्डेय जी। बस थोड़े दिनों की मोहलत और दो। मैं आपकी पाई-पाई चुका दूँगी।“ जसमतिया गिड़गिड़ाकर बोली।

“हूँ! यह ऐसे नहीं मानेगी। लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं। देख क्या रहे हो उठा तो इसकी लड़की को।“ पाण्डेय ने चीख कर अपने आदमियों को आदेश दिया।

पाण्डेय के आदमी तो मानो इसी के इंतजार में खड़े थे। आदेश मिलते ही वह चम्पा की ओर लपके।

“ऐसा मत करिए पाण्डेय जी। मुझ पर रहम कीजिए। आप भी आस औलाद वाले हैं। एक गरीब अबला पर इतना जुल्म ठीक नहीं है ?“ जसमतिया पाण्डेय के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाई।

“दूर हट कुतिया, ज़बान लड़ाती है।“ पाण्डेय ने कसकर एक लात जसमतिया के लगाई। जसमतिया दूर पत्थर पर जा गिरी। वह दर्द के मारे बिलबिला उठी।
उधर पाण्डेय के आदमियों ने चम्पा को पकड़ लिया। चम्पा छूटने के लिए ज़ोर लगाने लगी। उसने पूरी ताकत से एक आदमी के हाथ पर काट लिया। वह आदमी दर्द से बिलबिला उठा। उसकी पकड़ ढीली पड़ गई। चम्पा छूटकर एक ओर को भागी। दूसरे आदमी के हाथ में उसकी धोती पड़ गई। धोती खिंचती चली गई। चम्पा के शरीर पर अब केवल पेटीकोट ब्लाउज़ ही रह गया था।

दिन-दहाड़े चीर-हरण हो रहा था। मगर वहाँ कोई कृष्ण नहीं था जो अबला की लाज बचाने दौड़ा चला आता। लोग गूँगे बहरे बने खड़े थे और चुपचाप इस अन्याय को होते देख रहे थे। पाण्डेय के मामले में दखल देने का मतलब था-जल में रहकर मगर से बैर मोल लेना। इसलिए लोग सहमे खड़े थे। सबको अपनी जान प्यारी थी।

लोगों की चुप्पी से पाण्डेय का हौसला और बढ़ गया था-“पकड़ लो साली को, भागने न पाए।“

चम्पा ने भागने की जी तोड़ कोशिश की मगर चार-चार मुसटंडों के सामने उसकी क्या चलती! उन लोगों ने उसे पकड़ लिया और बुरी तरह घसीटने लगे।
चम्पा चीख-चीखकर माँ को पुकार रही थी। चम्पा की चीखें जसमतिया के दिल को छलनी किए दे रही थीं। जसमतिया बार-बार दौड़कर चम्पा से लिपट जाती और उसे छुड़ाने की कोशिश करती, मगर पाण्डेय के आदमी जसमतिया को उठाकर दूर पटक देते। पाण्डेय और उसके गुण्डे चम्पा को घसीटते हुए पाण्डेय के घर की ओर ले गये। जसमतिया ने हिकारत भरी नज़रों से लोगों की ओर देखा। लोग सिर झुकाए खड़े थे। जसमतिया ने घृणा से ज़मीन पर थूक दिया। लोग झेंप मिटाने के लिए अपने-अपने काम में लग गए।

जसमतिया भाग कर पुलिस चौकी पहुँची। वहाँ शायद पाण्डेय ने पहले से ही सब इंतजाम कर रखा था। इस समय चौकी पर अकेला एक बूढ़ा सिपाही बैठा हुआ था। जसमतिया ने पूरा हाल बताकर उससे अपनी लड़की को छुड़ाने की विनती की।

वह बोला-“इस समय तो मैं यहाँ अकेला हूँ, इसलिए चौकी खाली छोड़कर नहीं जा सकता। पर मैं मामले की तहकीकात करूँगा।“

दो दिन तक जसमतिया का पाँव नहीं रूका था। वह हर एक के पास अपनी फरियाद लेकर पहुँची थी। मगर उसकी गुहार किसी ने नहीं सुनी थी। पाण्डेय के धनबल और जनबल के सामने पुलिस और प्रशासन मानो पंगु होेकर रह गया था।

तीसरे दिन जसमतिया को उड़ती-उड़ती खबर मिली थी कि चम्पा ने किसी तरह पाण्डेय की गिरफ्त से छूटकर पहाड़ी से कूद कर अपनी जान दे दी है। पाण्डेय ने ले-देकर लाश का पंचनामा भरवा मामले को रफा-दफा करवा दिया था। तब से जसमतिया ने रो-रोकर बुरा हाल कर लिया था।

रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी, मगर जसमतिया की आँखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं था। तीन दिन से जसमतिया के मुँह में अन्न का एक दाना तक नहीं गया था। उसके मुँह से पाण्डेय के लिए हज़ारों-हज़ार बद्दुआएँ निकल रही थीं। वह बार-बार भगवान से प्रार्थना कर रही थी-“हे भगवान, इस पापी पाण्डेय को इसके किए की सज़ा दे। हे भगवान, अबला की पुकार सुन। पाण्डेय को इस धरती से उठा ले और पृथ्वी का बोझ हल्का कर।“

तभी जसमतिया चैंक पड़ी। अरे यह क्या ? अबला का शाॅप शायद सही होने जा रहा था। पृथ्वी जा़ेर-ज़ोर से काँपने लगी। मन्दिर की घंटियाँ बज उठीं। पहाड़ियाँ हिलने लगीं। जसमतिया कुछ देर तक किंकत्र्तव्यविमूढ़ सी बनी चारपाई पर बैठी रही। फिर वह कूद कर चारपाई से नीचे उतरी और बाहर खुले में आ गई।
पृथ्वी अब भी पूरे वेग से काँप रही थी। बड़े-बड़े पत्थर और पहाड़ियाँ टूट-टूट कर मकानों के ऊपर गिर रही थीं। जसमतिया बुत के समान खड़ी यह भीषण तबाही देख रही थी। उस रत उत्तरकाशी जिले में विनाशकारी भूकम्प आया था। नियति के चक्र और ग्रहों की गति को कोई नहीं जानता है। पलक झपकते ही भरा-पूरा गाँव खण्डहरों में तब्दील हो गया था। कहते हैं-पापी का पाप अपने साथ हज़ारों बेगुनाहों को भी ले डूबता है। पाण्डेय के पाप का फल उसके गाँव वालों को भी भोगना पड़ा था।

अगले दिन का सूरज जसमतिया के गाँव के लिए भयानक तबाही लेकर आया था। दूर-दूर तक बिखरा मकानों का मलबा, मलबे में दबी लाशें, घायलों की चीख-पुकार तथा बचे हुए लोगों का करुण क्रन्दन। पूरा वातावरण दिल को हिला देने वाला था। गाँव में जसमतिया के अलावा चार-पाँच लोग ही और बचे थे। पाण्डेय और दयाला का कहीं अता-पता नहीं चल रहा था। जसमतिया ने सोचा कि कहीं मर-खप गए होंगे।

समय का मरहम बड़े से बड़ा घाव को भर देता है। इस दैवी आपदा को आए एक महीना बीत चुका था। सब कुछ फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगा था। सरकारी सहायता से जसमतिया ने अपनी दुकान फिर बना ली थी। अब जसमतिया रहने भी दुकान में ही लगी थी। इस समय सरकारी लोगों का आना-जाना लगा रहता था। इसीलिए जसमतिया की दुकान थोड़ी बहुत चलने लगी थी और किसी तरह गुज़र बसर हो रही थी।

सुबह का समय था। जसमतिया ने अंगीठी सुलगाकर रख दी थी। वह बैठी-बैठी ग्राहकों के आने का इंतजार कर रही थी। तभी उसे नीचे की सड़क पर एक आदमी हाथों के बल घिसटता आता दिखाई दिया। कौन है यह आदमी ? जसमतिया के मन में जिज्ञासा पैदा हुई। तब तक वह आदमी और पास आ चुका था।
उस आदमी के चेहरे पर नज़र पड़ते ही जसमतिया की आँखों में खून उतर आया। वह आदमी और कोई नहीं पाण्डेय था। उसके दोनों पैर और एक हाथ टूटे हुए थे। किसी तरह एक हाथ के बल पर वह घिसट-घिसट कर चल रहा था। उसको कोई पानी देने वाला भी नहीं बचा था।

जसमतिया की इच्छा हुई कि वह पाण्डेय के मुँह पर थूक दे। मगर कुछ सोचकर वह रुक गई। जसमतिया सोचने लगी-भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी लाठी बेआवाज़ होती है। कल तक घमंड के कारण जिस पाण्डेय के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते थे, वही आज ज़मीन पर घिसटता हुआ भीख माँग रहा है। समय का चक्र इतनी तेज गति से घूमता है कि आदमी को संभलने का अवसर ही नहीं देता है। नियति के एक झटके में ही पाण्डेय का मान मद धन सब धूल धूसरित हो चुका है। अब बह घृणा नहीं दया का पात्र है ।
पाण्डेय याचना भरी नज़रों से जसमतिया की ओर देख रहा था। जसमतिया उठी और उसने मुँह फेरकर आधी ब्रेड पाण्डेय की ओर फेंक दी। पाण्डेय ने ब्रेड लपक ली और सूखी ब्रेड चबा-चबा कर खाने लगा।

साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्यकार

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