भगवान शिव भारतीय जनमानस में लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे आम आदमी के देवता हैं। इनकी पहचान एक मस्तमौला फक्कड़ व्यक्ति की है। भगवान शिव भस्म लगाये हुए हैं, भांग, धतूरा का सेवन करते हैं। भूत-प्रेत उनके संगी-साथी हैं। शंकर जी की बारात एक मुहावरा बन गया है। उनकी बारात में एक ओर भगवान विष्णु सहित सभी देवी-देवता हैं तो वहीं पर दूसरी ओर यक्ष, किन्नर, गंधर्व, बिना धड़, सिर, पैर वाले, एक से अधिक सिर वाले सभी तरह के प्राणी हैं। संक्षेप में यह विविधताओं का अनन्त विस्तार है। अव्यवस्था की व्यवस्था है, जो हमारे भारतीय लोकजीवन एवं जनमानस की संस्कृति व विविधताओं का प्रतिनिधित्व करती है। द्वादश शिवलिंग अपने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक प्रतिष्ठित है। वह देश की भौगोलिक एकता एवं अखण्डता को प्रतिबिंबित करते हैं। इस प्रकार भगवान शिव अलग-अलग लोगों, धाराओं, विचारों को एक साथ लेकर चलने वाले देवता हैं जो जीवन के विविध पक्षों को विविधताओं को सहज ढंग से समेटे हुए हैं।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को धरती पर पहली बार शिवलिंग प्रकट हुआ। इस रात्रि को महारात्रि भी कहते हैं जो रात्रि पर्व के रूप में मनाया जाता है। सामान्यतया हमारे सभी त्यौहार दिन में मनाये जाते हैं। लेकिन शिवरात्रि अन्य त्यौहारों से बिल्कुल अलग रात्रि में मनाया जाता है। इस पर्व पर रात्रि जागरण का अत्यन्त महत्त्व है। शिव को कल्याण का देवता कहा जाता है। भगवान शिव मनुष्य जीवन के सभी कष्ट, ताप व शूल को नष्ट करने वाले देवता हैं। वे त्रिशूलधारी हैं। दैहिक, दैविक, भौतिक तापों को समूल नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। ”त्रयः शूल निर्मूलन शूल पाणिम्।“
सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की अवधारणा में शिव कल्याण के रूप में ही प्रतिष्ठित है। रात्रि के तमस् अर्थात् अंधकार में साधना का अतयन्त महत्त्व है। हम यह प्रार्थना करते हैं कि हमारे जीवन से तमस्, तरह-तरह के विकार, जो अंधकार का ही प्रतिनिधित्व करते हैं, दूर हों। तमस तामसिक वृत्ति का द्योतक है। भगवान शिव की आराधना हमें अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
हमारे महर्षियों ने भी कहा है, ”तमसो मा ज्योतिर्गमय।“ रात्रि के अंधेरे एवं एकांत में हम अपने दिन भर के कर्मों का लेखा-जोखा शात चित्त से कर सकते हैं और भविष्य के लिए अपनी योजना भी बना सकते हैं। दिन भर हम विविध क्रियाओं, कार्यकलापों में व्यस्त रहते हैं। दिन में हमारी गतिविधि एवं प्रवृत्तियाँ कभी-कभी अत्यंत प्रबल हो उठती है, मन को अशांत एवं उद्वेलित कर देती हैं इनसे मुक्ति पाने का मार्ग साधना ही है, जिससे हम अपना विवेक जागृत कर सकते हैं।
भगवान शिव, जो कल्याणकारी है, उनका रौद्र रूप भी सर्वविदित है। उनके तांडव नृत्य से जगत में हाहाकार मच जाता है। उनके तीसरे नेत्र के खुलते ही कामदेव भस्म हो जाते हैं। जिस कामदेव को भस्म करते हैं उसी की पत्नी के विलाप पर द्रवित होकर कामदेव को अनंग रूप में सदा-सर्वदा अजर-अमर रहने का वरदान देते हैं। शिव एवं रुद्र स्वरुप का यह अद्भुत संगम है।
वैसे तो यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मा की रचना मानी जाती है। सृष्टिकर्ता के रूप में ये जिसके भाग्य में जो लिख देते हैं, उसे मिटाने वाला कोई दूसरा नहीं।
अर्थात् जो अवश्यम्भावी है, जो ब्रह्मा का लिखा हुआ है, उसे भी भगवान शिव मिटाने व बदलने में समर्थ है इसीलिए ये देवाधिदेव कहे जाते हैं। कहते हैं कि महर्षि मृकण्डु निःसंतान थे। उनकी पत्नी संतान न होने के कारण अत्यंत दुःखी रहती थी। संतान के लिए संतान के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की। भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्हें संतान सुख का वरदान दिया। कालानतर में मृकण्डु दम्पति को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम मार्कण्डेय रखा गया। ब्रह्मा जी ने इन्हें कुल सोलह वर्ष की आयु दी।
मार्कण्डेय जी जैसे-जैसे बड़े होते गए, माता-पिता उन्हें देखकर दुःखी रहने लगे क्योंकि उन्हें मालूम था कि बच्चे की कुल आयु सोलह वर्ष ही है। सोलहवें वर्ष में प्रवेश के साथ ही माता-पिता को बालक के भविष्य की चिन्ता असह्य होने लगी। अपने पिता को अत्यन्त खिन्न एवं उदास देखकर मार्कण्डेय जी ने उनका दुःख का कारण पूछा। प्रारम्भिक हिचकिचाहट के बाद पिता जी ने बालक को यह बात बता दिया कि उसकी आयु का शेष नहीं है और पुत्र की मृत्यु की आशंका से उन्हें असह्य वेदना हो रही है। मार्कण्डेय स्वयं शिव उपासक थे। उन्होंने अपने माता-पिता को सांत्वना दी और चिन्ता न करने के लिए कहा।
माता-पिता का आशीर्वाद लेकर श्री मार्कण्डेय दक्षिण समुद्र के तट पर पहुँचे। वहाँ पर स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके श्रद्धा-भक्ति के साथ महामृत्युंजय जाप के साथ भगवान शिव की उपासना करने लगे। मृत्यु के दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर जैसे ही वह अपने आसन से पूजा के लिए बैठे उन्हें अपने सामने काल-पाश लिए यमदूत साक्षात् दिखाई पड़े। उन्होंने यमदूत से अपने आश्रम में पूजा करने का अवसर दिये जाने का अनुरोध किया। यमदूत ने रोष से कहा कि काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता है। यमदूत ने जैसे ही श्री मार्कण्डेय के प्राण हरने का प्रयास किया वह स्वयं मूर्छित हो गया। शिवलिंग से वह प्रकट होकर भगवान शिव ने श्री मार्कण्डेय के प्राणों की रक्षा की और अवश्यम्भावी को भी मेटने की क्षमता रखने वाले देवाधिदेव के स्वरुप का आभास कराया। मामृत्युंजय स्त्रोत का पाठ आज भी काल के प्रभाव को नष्ट करने में सम्पर्क माना जाता है।
भगवान शिव पाँच मुख वाले हैं। उनका प्रथम मुख क्रीड़ा, दूसरा तपस्या, तीसरा संहार और चौथा स्वरुप है। उनका पाँचवाँ मुख ज्ञानस्वरुप है। ईशान, पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात नामक पाँच मूर्तियाँ शिव के पाँच मुखों से सम्बन्धित उपरोक्त गुणों का प्रतिनिधित्व करती है। भगवान शिव के ही उत्तर-पूर्वी मुख से अ-कार, पश्चिम मुख से ड-कार, दक्षिण मुँह से म-कार, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद प्रकट हुआ। इन्हीं पाँच अवयवों से ओंकार का विस्तार हुआ जो अंततः प्रणव वाचक एक अक्षर ओम के रूप में सामने आया। इसी क्रम में पंचाक्षर मंत्र ‘ओम् नमः शिवाय’ भगवान शिव के सम्पूर्ण स्वरुप का बोधक बना। प्रणव वाचक ओम और सम्पूर्ण प्रेम स्वरुप का बोध कराने वाला दिव्य महामंत्र-‘ओम् नमः शिवाय’ समस्त विधा, ज्ञान, मंगल, कल्याण व अध्यात्मक का मूल मंत्र है।
भगवान शिव की विशिष्टताएँ अद्भुत एवं अकल्पीय हैं। स्वयं दिगम्बर हैं अर्थात् उनके पास अपना कुछ भी नहीं है। फिर भी भक्तों को अतुल यश, वैभव, ऐश्वर्य हैं, अर्थात् केवल भस्म धारण करते हैं। श्मशानवासी होने पर भी तीनों लोकों के स्वामी हैं। स्वयं अर्धनारीश्वर हैं, फिर भी कामदेव सहित समस्त इन्द्रियों को वश में करने वाले योगिराज भी हैं। पार्वती जी के साथ रहने पर भी कामाजित हैं। उनका परिवार बहुत बड़ा है। उनके परिवार में सभी द्वंद्व व द्वैत परस्पर विलीन हो जाते हैं। एकादश रूद्र, रूद्राणियाँ, चैसठ योगिनियाँ, शोडश मातृकायें, भैरव आदि इनके सहचर एवं सहचरी हैं। यद्यपि भगवान शिव सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि काशी एवं कैलाश इन्हें अधिक प्रिय हैं। भगवान शंकर के चरित्र बड़े ही उदात्त एवं अनुकम्पापूर्ण है। ज्ञान, वैराग्य एवं साधुता के परम आदर्श हैं। वे भयंकर रूद्र रूप हैं तो भोलेनाथ भी हैं। दुष्ट-दैत्यों के संहार में कालरूप हैं तो दीन-दुखियों की सहायता करने में दयालुता के समुद्र है।
महर्षि मृकण्डु निःसंतान थे। उनकी पत्नी संतान न होने के कारण अत्यंत दुःखी रहती थी। संतान के लिए संतान के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की। भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्हें संतान सुख का वरदान दिया। कालानतर में मृकण्डु दम्पति को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम मार्कण्डेय रखा गया। ब्रह्मा जी ने इन्हें कुल सोलह वर्ष की आयु दी। मार्कण्डेय जी जैसे-जैसे बड़े होते गए, माता-पिता उन्हें देखकर दुःखी रहने लगे क्योंकि उन्हें मालूम था कि बच्चे की कुल आयु सोलह वर्ष ही है। सोलहवें वर्ष में प्रवेश के साथ ही माता-पिता को बालक के भविष्य की चिन्ता असह्य होने लगी। अपने पिता को अत्यन्त खिन्न एवं उदास देखकर मार्कण्डेय जी ने उनका दुःख का कारण पूछा। प्रारम्भिक हिचकिचाहट के बाद पिता जी ने बालक को यह बात बता दिया कि उसकी आयु का शेष नहीं है और पुत्र की मृत्यु की आशंका से उन्हें असह्य वेदना हो रही है। मार्कण्डेय स्वयं शिव उपासक थे। उन्होंने अपने माता-पिता को सांत्वना दी और चिन्ता न करने के लिए कहा। माता-पिता का आशीर्वाद लेकर श्री मार्कण्डेय दक्षिण समुद्र के तट पर पहुँचे। वहाँ पर स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके श्रद्धा-भक्ति के साथ महामृत्युंजय जाप के साथ भगवान शिव की उपासना करने लगे। मृत्यु के दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर जैसे ही वह अपने आसन से पूजा के लिए बैठे उन्हें अपने सामने काल-पाश लिए यमदूत साक्षात् दिखाई पड़े। उन्होंने यमदूत से अपने आश्रम में पूजा करने का अवसर दिये जाने का अनुरोध किया। यमदूत ने रोष से कहा कि काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता है। यमदूत ने जैसे ही श्री मार्कण्डेय के प्राण हरने का प्रयास किया वह स्वयं मूर्छित हो गया। शिवलिंग से वह प्रकट होकर भगवान शिव ने श्री मार्कण्डेय के प्राणों की रक्षा की और अवश्यम्भावी को भी मेटने की क्षमता रखने वाले देवाधिदेव के स्वरुप का आभास कराया। मामृत्युंजय स्त्रोत का पाठ आज भी काल के प्रभाव को नष्ट करने में सम्पर्क माना जाता है।
भगवान शिव पाँच मुख वाले हैं। उनका प्रथम मुख क्रीड़ा, दूसरा तपस्या, तीसरा संहार और चैथा स्वरुप है। उनका पाँचवाँ मुख ज्ञानस्वरुप है। ईशान, पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात नामक पाँच मूर्तियाँ शिव के पाँच मुखों से सम्बन्धित उपरोक्त गुणों का प्रतिनिधित्व करती है। भगवान शिव के ही उत्तर-पूर्वी मुख से अ-कार, पश्चिम मुख से ड-कार, दक्षिण मुँह से म-कार, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद प्रकट हुआ। इन्हीं पाँच अवयवों से ओंकार का विस्तार हुआ जो अंततः प्रणव वाचक एक अक्षर ओम के रूप में सामने आया। इसी क्रम में पंचाक्षर मंत्र ‘ओम् नमः शिवाय’ भगवान शिव के सम्पूर्ण स्वरुप का बोधक बना। प्रणव वाचक ओम और सम्पूर्ण प्रेम स्वरुप का बोध कराने वाला दिव्य महामंत्र-‘ओम् नमः शिवाय’ समस्त विधा, ज्ञान, मंगल, कल्याण व अध्यात्मक का मूल मंत्र है।
भगवान शिव की विशिष्टताएँ अद्भुत एवं अकल्पीय हैं। स्वयं दिगम्बर हैं अर्थात् उनके पास अपना कुछ भी नहीं है। फिर भी भक्तों को अतुल यश, वैभव, ऐश्वर्य हैं, अर्थात् केवल भस्म धारण करते हैं। श्मशानवासी होने पर भी तीनों लोकों के स्वामी हैं। स्वयं अर्धनारीश्वर हैं, फिर भी कामदेव सहित समस्त इन्द्रियों को वश में करने वाले योगिराज भी हैं। पार्वती जी के साथ रहने पर भी कामाजित हैं। उनका परिवार बहुत बड़ा है। उनके परिवार में सभी द्वंद्व व द्वैत परस्पर विलीन हो जाते हैं। एकादश रूद्र, रूद्राणियाँ, चैसठ योगिनियाँ, शोडश मातृकायें, भैरव आदि इनके सहचर एवं सहचरी हैं। यद्यपि भगवान शिव सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि काशी एवं कैलाश इन्हें अधिक प्रिय हैं। भगवान शंकर के चरित्र बड़े ही उदात्त एवं अनुकम्पापूर्ण है। ज्ञान, वैराग्य एवं साधुता के परम आदर्श हैं। वे भयंकर रूद्र रूप हैं तो भोलेनाथ भी हैं। दुष्ट-दैत्यों के संहार में कालरूप हैं तो दीन-दुखियों कीसहायता करने में दयालुता के समुद्र है।
साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण