फादर कामिल बुल्के का जन्म एक सितम्बर, 1909 को बेल्जियम में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव से ही पूरी करने के बाद 1930 में उन्होंने लुवेन विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस दौरान उनका सम्पर्क कैथोलिक ईसाइयों के जेसुइट पन्थ से हुआ। उन्होंने वहाँ से धार्मिक शिक्षा प्राप्त की। पादरी बनकर 1935 में वे संस्था के आदेशानुसार ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के लिए अध्यापक बनकर भारत आ गये।
सर्वप्रथम उन्होंने दार्जिलिंग और फिर बिहार के अति पिछड़े क्षेत्र गुमला में अध्यापन किया। इस दौरान उन्हें भारतीय धर्म, संस्कृति, भाषा तथा दर्शन का अध्ययन करने का अवसर मिला। इससे उनके जीवन में भारी परिवर्तन हुआ। अंग्रेजों द्वारा भारत पर किया जा रहा शासन उनकी आँखों में चुभने लगा।
निर्धन और अशिक्षित हिन्दुओं को छल-बल और लालच से ईसाई बनाने का काम भी उन्हें निरर्थक लगा। अतः उन्होंने सदा के लिए भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने बेल्जियम की नागरिकता छोड़ दी और पूरी तरह भारतीय बनकर स्वतन्त्रता के आन्दोलन में कूद पड़े।
यद्यपि वे फ्रेंच, अंग्रेजी, फ्लेमिश, आइरिश आदि अनेक भाषाओं के विद्वान थे; पर उन्होंने भारत से जुड़ने के लिए हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे राँची में विज्ञान पढ़ाते थे; पर इसके साथ उन्होंने हिन्दी का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. की डिग्री ली। इस दौरान उनका गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य से विस्तृत परिचय हुआ। फिर तो तुलसीदास उनके सबसे प्रिय कवि हो गये।
अब वे तुलसी साहित्य पर शोध करने लगे। 1949 में उन्हें ‘रामकथा: उद्भव और विकास’ विषय पर पी-एच.डी की उपाधि मिली। इसके बाद वे राँची के सेण्ट जेवियर कालिज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष हो गये। तुलसी साहित्य पर गहन अध्ययन के कारण उन्हें पूरे देश से व्याख्यानों के लिए निमन्त्रण मिलने लगे। उनका नाम फादर की जगह बाबा कामिल बुल्के प्रसिद्ध हो गया।
एक बार उन्होंने बताया था कि ”कविकुल शिरोमणि तुलसीदास जी से मेरा संक्षिप्त परिचय अपने देश में ही हुआ था। उस समय मैं विश्व के श्रेष्ठ साहित्य की जानकारी देने वाला एक जर्मन ग्रन्थ पढ़ रहा था। उसमें तुलसीदास और श्री रामचरितमानस का संक्षिप्त वर्णन था। जर्मन भाषा में वह पढ़कर मेरे हृदय के तार झंकृत हो उठे। भारत आकर मैंने इसका और अध्ययन किया। मेरा आजीवन भारत में ही रहने का विचार है; पर यदि किसी कारण से मुझे भारत छोड़ना पड़ा, तो मैं मानस की एक प्रति अपने साथ अवश्य ले जाऊँगा।
श्री बुल्के का अनुवाद कार्य भी काफी व्यापक है। इनमें न्यू टेस्टामेण्ट, पर्वत प्रवचन, सन्त लुकस का सुसमाचार, प्रेरित चरित आदि ईसाई धर्म पुस्तकें प्रमुख हैं। अपनी पुस्तक ‘दि सेवियर’ तथा विश्वप्रसिद्ध फ्रे॰च नाटक ‘दि ब्लूबर्ड’ का नीलपक्षी के नाम से उन्होंने अनुवाद किया। हिन्दी तथा अंग्रेजी में उन्होंने 29 पुस्तक, 60 शोध निबन्ध तथा 100 से अधिक लघु निबन्ध लिखे। उनका हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश आज भी एक मानक ग्रन्थ माना जाता है। 1974 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया।
हिन्दीसेवी बाबा बुल्के का देहान्त 17 अगस्त, 1982 को हुआ। आज बे हमारे मध्य नहीं है परन्तु हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए किए गए उनके अथक प्रयासों के लिए उनका सदैव स्मरण किया जाएगा ।
सुरेश बाबू मिश्रा ,साहित्य भूषण बरेली ।