गाँधी जी ने देश में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। अपने भ्रमण के दौरान वे छोटी-छोटी सभाओं के माध्यम से लोगों के मध्य स्वराज्य के बारे में अपने विचार रखते थे और सभा में मौजूद लोगों के विचारों को जानने का प्रयास करते थे। अपनी भारत यात्रा के दौरान गाँधी जी को यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि हिन्दी को स्वतन्त्रता आन्दोलन की भाषा बनाए बिना स्वतन्त्रता आन्दोलन की गूंज जन-जन तक पहुँचाना और देश के करोड़ों लोगों को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ना कठिन है। इसलिए उन्होंने हिन्दी को स्वतन्त्रता आन्दोलन की आवाज बनाने का निश्चय किया।
गाँधी जी दूरदृष्टा थे। वे देश की सभी समस्याओं को जनसंदर्भ में देखने वाले मनीषी थे। वे अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को भली-भांति समझ गए थे कि अंग्रेज शासक अपनी शिक्षा पद्धति द्वारा समाज में अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व को स्थापित कर देश की मुख्य भाषा हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अस्तित्व को मिटा देना चाहते थे। अंग्रेज शासक हिन्दी या अन्य भाषा बोलने वाले लोगों को गंवार कहते थे।
उस समय गाँवों में अंग्रेज शासकों के चहेते एवं कृपा पात्र राजाओं, सुल्तानों, जमींदारों एवं साहूकारों का बोलवाला था। यह सब लोग अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते थे और पूरी तरह से अंग्रेजी सभ्यता में ढल गए थे। यह अंग्रेजों का भारतीय जनमानस में अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं भाषा को सदा-सर्वदा के लिए स्थापित कर देने का कुचक्र था। वे हमारे देश की संस्कृति, सभ्यता एवं भाषा को कुचल देना चाहते थे।
अंग्रेजों के इस कुचक्र को देखकर गाँधी जी ने हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति के संरक्षण का प्रण लिया। गाँधी जी एक राष्ट्र एक भाषा के प्र्र्र्रबल पक्षधर थे। हिन्दी भाषा के सम्बन्ध में उनकी अवधारणा बिल्कुल स्पष्ट थी। अपने भाषणों में वे स्पष्ट कहते थे कि देश की अधिकांश जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा बन सकती है। 19 मार्च 1918 को इन्दौर में दिए भाषण में उन्होंने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने पर बल दिया। उन्होंने कहा-“अगर हिन्दुस्तान को एक राष्ट्रीय भाषा बनाना है तो चाहे कोई माने या ना माने राष्ट्र भाषा हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि हिन्दी को जो स्थान प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को नहीं मिल सकता। अगर स्वराज्य करोड़ों निरक्षरों, दलितों और अंत्यजों का हो और हम सबके लिए हो तो हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्र भाषा हो सकती है।
उस अखिल भारतीय कांग्रेस में भी अंग्रेजी भाषा के समर्थकों का बोलवाला था। इसलिए अखिल भारतीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों में जो प्रस्ताव पारित किए जाते थे वे अंग्रेजी भाषा में ही होते थे। इसलिए जनसाधरण उन प्रस्तावों को ठीक तरह से नहीं समझ पाते थे। इससे गाँधी जी बड़े चिन्तित थे। उन्होंने हिन्दी को कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों की भाषा बनाने का निर्णय लिया।
सन् 1925 में अखिल भारतीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में गाँधी जी की पहल पर भाषा नीति के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया-“कांग्रेस का कामकाज अधिक से अधिक हिन्दुस्तानी जुवान में किया जाये।“ यहाँ हिन्दुस्तानी जुवान का अभिप्राय हिन्दी भाषा से था।
इस भाषा प्रस्ताव को और स्पष्ट करते हुए गाँधी जी ने कहा-“जहाँ तक हो सके कांग्रेस के कार्यक्रमों में हिन्दी, उर्दू का प्रयोग किया जाए। यह एक महत्व का प्रस्ताव माना जाएगा। अगर कांग्रेस के सभी सदस्य इस प्रस्ताव को मानकर चले तो कांग्रेस के काम में गरीबों की दिलचस्पी बढ़ जाये।“ इस प्रकार गाँधी जी के प्रयासों से हिन्दी स्वतन्त्रता आन्दोलन की आवाज बनी और हिन्दी भाषा ने आजादी के आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के बाद महात्मा गाँधी की प्रेरणा से कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की आवाज जन-जन तक पहुँचाने के लिए हिन्दी का समाचार -पत्र “हिन्दुस्तान“ निकालने का निर्णय लिया। पंडित मदन मोहन मालवीय को इसका सम्पादक बनाया गया।
गणेश शंकर विद्यार्थी जो एक प्रखर पत्रकार और महान देशभक्त थे उन्होंने कानपुर से हिन्दी का समाचार पत्र “प्रताप“ निकालना प्रारम्भ किया। प्रताप में प्रकाशित लेख लोगों के मन में आजादी की ज्वाला भरने का काम करते थे। हिन्दी के इस समाचार-पत्र ने जंगे आजादी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हिन्दी को जन-जन की भाषा बनाने और प्रत्येक देशवासी को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए गाँधी जी ने आजीवन हिन्दी बोलने का प्रण लिया। वे जनसभाओं में सदैव हिन्दी में ही भाषण दिया करते थे। उनसे मिलने आने वाले लोगों से भी वे हमेशा हिन्दी में ही बात किया करते थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन के विचार को जन-जन तक पहुँचाने के लिए गाँधी जी ने हिन्दी में “हरिजन“ समाचार-पत्र निकालना प्रारम्भ किया। इस पत्र ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को जन-जन तक पहुँचाने में बहुत सक्रिय भूमिका निभाई।
लेखों में हमें गाँधी जी के इसके स्वराज्य सम्बन्धी विचारों की झलक स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।
दक्षिण भारत में हिन्दी की लोकप्रियता एवं स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए गाँधी जी ने दक्षिण भारत में सन् 1918 में हिन्दी की एक संस्था स्थापित की जिसका नाम-“दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार“ रखा गया। यह संस्था मद्रास में चेन्नई में स्थापित की गई। इसका मुख्य उद्देश्य दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना था। हिन्दी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य की पूर्ति एवं पूरे देश को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ना गाँधी जी की मुहिम का एक हिस्सा था। हिन्दी को उन्होंने पूरे देश की भाषा बना दिया।
देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन को सफल बनाने में हिन्दी के समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिन्दी के तत्कालीन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा पूरे देश में स्वतन्त्रता की अलख जगाई। पूरे स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दी और उर्दू के नारे, गीत एवं तराने गूंजते रहे। उस समय भारत माता की जय, इन्क्लाब जिन्दाबाद, वन्देमातरम् के नारों की गूंज पूरे देश में सुनाई देती थी। 9 अगस्त 1945 को शुरू अगस्त क्रान्ति का हिन्दी में गढ़ा हुआ नारा-“अंग्रेजो भारत छोड़ो“ आजादी का मूलमन्त्र बन गया। भारत की सीमाओं को पार करती हुई इस नारे की गूंज विदेशों तक जा पहुँची। इस प्रकार गाँधी जी ने हिन्दी की विकास यात्रा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
सेवा निवृत्त प्रधानाचार्य