देशप्रेम की भावना व्यक्ति को कभी काले पानी जैसी भयानक जेल में यंत्रणाओं की भट्टी में झोंक देती है, तो कभी वह उसे फांसी के तख्ते पर खड़ा कर देती है। इस परिणाम को जानते हुए भी स्वाधीनता समर के दीवाने एक के बाद एक बलिवेदी पर अपने मस्तक चढ़ाते रहे।
ऐसे ही प्रेरणा पुरुष थे मास्टर अमीरचंद, जिनके कंधों पर 1908-09 में सम्पूर्ण उत्तर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन को सुगठित करने का महत्वपूर्ण भार डाला गया था। मास्टर अमीरचंद की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में ही हुई थी। इसलिए वे दिल्ली के चप्पे-चप्पे से परिचित थे। वे संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। दिल्ली से बी.ए करने के बाद वे वहां ईसाइयों द्वारा संचालित कैम्ब्रिज मिशन हाई स्कूल में अध्यापक हो गये।
पर अध्यापन कार्य तो एक बहाना था। उनका मन तो देश की स्वाधीनता के लिए ही तड़पता रहता था। बंग-भंग के समय जब देश में स्वदेशी आंदोलन की लहर चली, तो वे उसमें कूद पड़े। कैम्ब्रिज मिशन स्कूल वालों को उनकी यह सक्रियता अच्छी नहीं लगी। अतः उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। इस पर वे नेशनल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। इसकी स्थापना दिल्ली के एक सम्पन्न व्यापारी लाला हनुमन्त सहाय ने अपने घर में ही की थी।
23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की सवारी पर बम फेंका गया। वायसराय तो बच गया, पर उसके अंगरक्षक मारे गये। इसके बाद ढाका, मैमनसिंह और लाहौर में भी विस्फोट हुए। इससे सरकार के कान खड़े हो गये। कोलकाता, दिल्ली तथा पंजाब के अनेक स्थानों पर मारे गये छापों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आग उगलने वाले पत्रक, पिस्तौल व कारतूस आदि पकड़े गये।
मास्टर अमीरचंद, अवधबिहारी और दीनानाथ इस बम विस्फोट के सूत्रधारों में थे। बरामद कागजों में उनके नाम मिलेे। अतः इन्हें पकड़ लिया गया। दीनानाथ पुलिस की मार नहीं झेल सके और क्षमा मांगकर सरकारी मुखबिर बन गये। उनके बताने पर भाई बालमुकुन्द भी गिरफ्तार कर लिये गये।
मास्टर अमीरचंद पर ‘लिबर्टी’ नामक उग्र पर्चा लिखने का आरोप था, जो वायसराय पर बम फेंकते समय बांटा गया था। उसमें लिखा था – हम संख्या में इतने हैं कि उनकी तोपें छीन सकते हैं। ये सड़ी सुधार योजनाएं किसी काम नहीं आएंगी। एक बार तख्ता पलट दो और फिरंगी को मारकर खत्म कर दो…। यह पर्चा उन पर अभियोग चलाने के लिए पर्याप्त था। यद्यपि दिल्ली के अनेक प्रतिष्ठित नागरिकों ने उन्हें निर्दोष बताया। वकीलों ने उनके पक्ष में जोरदार बहस की; पर बहरा शासन कुछ सुनने को तैयार नहीं था।
मास्टर अमीरचंद तो बलिदानी बाना पहन ही चुके थे। उन्हें मृत्यु से कोई भय नहीं था। उन्हें कष्ट था तो इस बात का कि उनके साथी दीनानाथ ने मुखबिरी की; पर अभी उन्हें और अधिक दुख देखने थे। उनका दत्तक पुत्र सुल्तानचंद जब उनके विरुद्ध गवाही देने के लिए न्यायालय में खड़ा हुआ, तो मास्टर अमीरचंद का दिल टूट गया। उन्होंने भरी आंखों से अपना मुंह फेर लिया।
11 मई, 1915 को क्रांतिवीरों के प्रेरणा पुंज मास्टर अमीरचंद को दिल्ली में ही फांसी दे दी गयी। उनके साथ फांसी का फंदा चूमने वाले तीन अन्य क्रांतिकारी थे – अवधबिहारी, भाई बालमुकुन्द और बसंतकुमार विश्वास।
सुरेश बाबू मिश्रा ,सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य बरेली ।