हैदराबाद सत्याग्रह के बलिदानी पुरुषोत्तम जी ज्ञानी

देश की स्वतन्त्रता की तरह ही हैदराबाद रियासत की स्वतन्त्रता के लिए भी अनेक हिन्दू वीरों ने अपने प्राण गँवाये हैं। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतन्त्र होने के बाद वहाँ का निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाना या फिर स्वतन्त्र रखना चाहता था। लीगी मानसिकता के उस क्रूर निजाम के शासन में बहुसंख्यक होते हुए भी हिन्दुओं पर अत्याचार होते थे। ऐसे वातावरण में देश भर के हिन्दुओं ने आर्य समाज और हिन्दू महासभा के नेतृत्व में वहाँ सत्याग्रह आन्दोलन किया और इस व्यवस्था को बदलने में सफल हुए।

1867 में बुरहानपुर के श्री जगन्नाथ जी के घर में एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम पुरुषोत्तम ज्ञानी रखा गया। शिक्षार्जन हेतु वे जबलपुर चले गये। यहाँ मैट्रिक कर कुछ समय नौकरी की; पर बीमार होने से वापस घर आ गये। फिर इन्दौर में तार का काम सीखा और अजमेर रेलवे में तारबाबू बन गये।

छात्र जीवन में ही इनका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ और ये निष्ठापूर्वक उससे जुड़ गये। ये अपने विचारों को साफ-साफ प्रकट करते थे। इस कारण इनके कई शत्रु बन गये और इन पर कई बार हमले हुए। छह वर्ष बाद उनका स्थानान्तरण डाक विभाग में हो गया और वे राजस्थान और मालवा में रहकर काम करते रहे। ये जहाँ भी रहे, वहीं आर्य समाज का प्रचार किया।

इस विभाग में भी उनकी स्पष्टवादिता और ईमानदारी से अनेक अधिकारी नाराज हो गये और उनकी पेंशन रोक दी गयी। इस पर उन्होंने कपास का व्यापार कर लिया। यहाँ भी उन्हें भ्रष्टाचार से लड़ना पड़ा। इनके प्रयासों से भ्रष्टाचार पर रोक लगी और कपास उत्पादक किसानों को लाभ हुआ।

हिन्दू समाज में फैले छूत-अछूत के रोग से वे बहुत दुखी थे। अछूतों को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के उन्होंने अनेक कार्यक्रम किये। ऐसे एक कार्यक्रम में शंकराचार्य डा. कुर्लकोटि भी बुरहानपुर पधारे थे।

जब हैदराबाद सत्याग्रह का आह्नान हुआ, तो इन्होंने पहले जत्थे में शामिल होकर गुलबर्गा में सत्याग्रह किया। निजाम की जेलों में बन्दियों की दुर्दशा रहती थी। फिर ये तो निजाम का ही विरोध कर रहे थे, अतः इनसे खूब शारीरिक श्रम कराया जाता और गन्दा भोजन दिया जाता। इससे दो महीने में ही ज्ञानी जी संग्रहणी रोग के शिकार हो गये। इसके बाद भी ये वहीं डटे रहे। एक बार इनका पुत्र वहाँ आया, तो जेल अधिकारियों ने मिलने के बाद इन्हें अन्दर नहीं आने दिया। शायद वे इनकी मृत्यु का कलंक अपने सिर लेना नहीं चाहते थे। मजबूरी में इन्हें घर जाना पड़ा।

पर इधर निजाम ने यह बात उड़ा दी कि ये क्षमा माँग कर छूटे हैं। इससे इनके मन को बहुत चोट लगी और बहुत बीमार होते हुए भी ये फिर सत्याग्रह कर जेल पहुँच गये। इन्हें सजा हुई; पर वृद्ध होने के कारण तुरन्त ही छोड़ भी दिया गया। इस पर ये गुलबर्गा के आर्य समाज में डेरा डालकर बैठ गये और दिन भर शहर में घूम-घूमकर निजाम के विरोध में प्रचार करने लगे।

इस बीच इनका रोग बहुत बढ़ चुका था। सब साथियों ने इन्हें जबरन घर भेज दिया। वहाँ जेल से मिले इस भीषण रोग रूपी प्रसाद के कारण 26 अगस्त, 1941 को ज्ञानी जी का देहान्त हो गया। इनके बड़े पुत्र पण्डित रामदत्त ज्ञानी भी सत्याग्रह कर हैदराबाद की चंचलगुडा जेल में रहे थे। पिताजी के देहान्त से कुछ समय पूर्व ही वे छूट कर आये थे।

साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण

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