देशसेवा एवं सत्य की रक्षा में जिन पत्रकारों ने अपना बलिदान दिया, उनमें भाग्यनगर हैदराबाद के शोएबुल्लाह का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। शोएब का जन्म 12 अक्तूबर, 1920 को आन्ध्र प्रदेश के वारंगल जिले के महबूबाबाद में हुआ था। उनके पिता वहाँ रेलवे स्टेशन पर पुलिस अधिकारी थे। घर में स्वतन्त्रता आन्दोलन की चर्चाओं का प्रभाव बालक शोएब के मन पर भी पड़ा। क्रान्तिकारी अशफाक उल्ला खाँ के बलिदान के बाद उनका मन भी देशसेवा के लिए मचलने लगा।
शोएब को बचपन से ही लिखने का शौक था। उन दिनों बहुत कम मुसलमान अच्छी शिक्षा पाते थे; पर शोएब ने स्नातक तक की शिक्षा पायी। ऐसे में उन्हें कोई भी अच्छी सरकारी नौकरी मिल सकती थी; पर वह पत्रकार बनना चाहते थे। उन दिनों वहाँ श्री नरसिंहराव के ‘रैयत’ नामक उर्दू अखबार की बड़ी धूम थी। उसमें अंग्रेजों तथा निजाम के अत्याचारों की खुली आलोचना होती थी। शोएब पचास रु. महीने पर वहाँ उपसम्पादक बन गये।
उन दिनों निजाम उस्मान अली के राज्य में रजाकारों का आंतक फैला था। वे हिन्दुओं को बुरी तरह से सताते थे। लूटपाट, हत्या, हिंसा, आगजनी, बलात्कार, धर्मान्तरण उनके लिए सामान्य बात थी। निजाम उन्हें समर्थन देता ही था। 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हो गया; पर अंग्रेजों ने रजवाड़ों को भारत या पाकिस्तान के साथ जाने अथवा स्वतन्त्र रहने की छूट दे दी। निजाम के राज्य में 90 प्रतिशत जनता हिन्दू थी। फिर भी वह स्वतन्त्र रहना या फिर पाकिस्तान के साथ जाना चाहता था। आर्यसमाज एवं हिन्दू महासभा के नेतृत्व में वहाँ की जनता इसके विरुद्ध आन्दोलन चला रही थी।
रजाकारों ने बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को बड़ी संख्या में निजाम के राज्य में बुलाकर बसा लिया। रैयत समाचार पत्र इन सबका पर्दाफाश करता था। इस कारण निजाम ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया; पर इससे नरसिंहराव और शोएब ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने ‘इमरोज’ नामक पत्र निकाला और अब वे इसके माध्यम से आग उगलने लगे। 19 अगस्त, 1948 को हैदराबाद के ‘जमरूद थियेटर’ में रजाकारों का सम्मेलन था। वहाँ रजाकारों के मुखिया कासिम रिजवी ने अपने भाषण में कहा कि जो हाथ हमारे खिलाफ लिखते हैं, उन्हें काट दिया जाएगा। यह शोएब के लिए खुली धमकी थी। फिर भी ‘इमरोज’ ने अगले दिन इस भाषण की प्रखर आलोचना की।
21 अगस्त, 1948 की रात में जब शोएब काम समाप्त कर अपने साले रहमत के साथ घर वापस जा रहा था, तो रजाकारों ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने शोएब पर पीछे से गोली चलायी। जब वह गिर गया, तो उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। रहमत का भी एक हाथ और दूसरे हाथ की उंगली काट दी गयी। लोगों ने घायल शोएब को घर पहुँचाया। कुछ ही देर में अपनी माँ, पत्नी और बेटी के सम्मुख उसने प्राण त्याग दिये।
भारत के गृहमन्त्री सरदार पटेल के पास सब समाचार पहुँच रहे थे। उन्होंने 13 सितम्बर को वहाँ सेना भेज दी। तीन दिन में ही सेना ने निजाम और रजाकारों के आतंक से जनता को मुक्ति दिला दी। हैदराबाद का विलय भारत में तो हो गया; पर 17 सितम्बर, 1948 को जब वहाँ तिरंगा झण्डा फहराया, तो उसे देखने के लिए शोएबुल्लाह जीवित नहीं थे । मगर बे मर कर भी अमर हो गए ।
सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण, बरेली