लघुकथा – करिश्मा

दिल्ली में यमुना नदी पर बने पुल के नीचे हजारों मजदूर परिवार सहित गाँव जाने की उम्मीद में कई दिन से डेरा डाले हुए थे। राजपाल अपनी पत्नी कमला के साथ परसों यहां पहुंचा था। कमला इन दिनों पेट से थी इसलिए राजपाल गहरी चिन्ता में डूबा हुआ था। उसे गाँव पहुंचने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। दो दिन तो किसी तरह कट गए थे मगर आज दोपहर से ही कमला के पेट में हल्का-हल्का दर्द उठना शुरू हो गया था।
जब दर्द बढ़ता गया तो कमला ने राजपाल को बताया। यह सुनकर राजपाल बहुत परेशान हो उठा। यहां दूर-दूर तक इसका कोई अपना नहीं था। लाॅकडाउन के कारण कोई आटो भी नहीं चल रहा था जो वह कमला को लेकर कहीं जा सके।
जब कमला दर्द से तड़पने लगी तो राजपाल ने थोड़ी दूर पर बैठी एक बुजुर्ग महिला को सारी बात बताई और उनसे मदद की गुहार की। वह राजपाल को दिलासा देती हुई बोली-“घबराओ नहीं बेटा। सब ठीक हो जायेगा, जिसका कोई नहीं होता है उसका भगवान होता है। उस पर विश्वास रखो।“
उस बुजुर्ग महिला ने कुछ और मजदूर परिवारों को यह बात बताई। न कोई रिश्ता ना कोई नाता, न कोई जान-पहचान मगर इन्सानियत का तकाजा था इसलिए आनन-फानन में पांच-छः महिलाएं कमला के पास आ जुटी।
उन्होंने रस्सी बांधकर उस पर चादरें डालकर चारों ओर से आड़ कर ली और उसी में एक चटाई बिछाकर उस पर कमला को लिटा दिया। वे सब उसकी देखभाल में लग गईं। नीचे जमीन ऊपर आसमान। न कोई दवाई न कोई सामान, न कोई डाक्टर न कोई नर्स। मगर कुदरत को करिश्मा तो देखो उन महिलाओं की देखरेख में कमला ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। सबके चेहरे खुशी से खिल उठे। राजपाल तो खुशी से फूला नहीं समा रहा था।

साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
वरिष्ठ साहित्यकार

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