लघुकथा – चढ़ा हुआ पारा

मधुरेश कुमार ने ऑफिस जाने के लिए मोटर साइकिल स्टार्ट की। सुबह के साढ़े नौ बजे थे, मगर अभी से बाहर मानो आग बरस रही थी। सूरज का पारा चढ़ा हुआ था। मधुरेश ने हैलमेट लगा रखा था, इसलिए उनका सिर तो धूप से बचा हुआ था, मगर पूरा बदन धूप में बुरी तरह तप रहा था। उधर मोटर साइकिल की सीट गर्म हो गई थी और वह भट्टी की तरह तप रही थी। नियत समय पर मधुरेश ऑफिस पहुँच गये। उनका केबिन दूसरी मंजिल पर था। उसमें पंखा तो लगा हुआ था, मगर कूलर नहीं था। पूरे दिन पंखा गर्म हवा फेंकता रहा। गर्मी और उमस के मारे दिन भर उनका बुरा हाल रहा। बैग में रखी बोतल का पानी इतना गर्म हो गया था कि उससे प्यास नहीं बुझ रही थी। ऑफिस बन्द होने के बाद मधुरेश घर के लिए चल दिए। पहले उनकी इच्छा हुई कि रास्ते में कहीं लस्सी पी लें, फिर उन्होंने सोचा कि घर पहुंचकर पहले नहाएंगे और उसके बाद शिकंजी पीकर कुछ समय तक कूलर की ठण्डी हवा में लेटेंगे। साढ़े पांच बजने वाले थे, मगर सूरज के तेवर में अभी कोई कमी नहीं आई थी। उसका पारा पैंतालीस डिग्री से भी ऊपर पहुंच गया था। घर पहुंचते-पहुंचते उनका पूरा शरीर पसीने में तर बतर हो गया था। मोटर साइकिल खड़ी कर वे बैठक के दरवाजे की ओर बढ़े। दरवाजा खुला हुआ था। इसका मतलब उनका बेटा मयंक ऑफिस से लौट आया था। मधुरेश बैठक में दाखिल हुए मगर घर के अन्दर से आ रही आवाजों को सुनकर उनके कदम ठिठक गए। अन्दर से उनकी पत्नी और बहू के लड़ने की तेज आवाजें आ रही थीं। दोनों एक-दूसरे के दिल को चोट पहुंचाने के लिए कठोर से कठोर शब्दों का इस्तेमाल कर रही थीं। महीने में दो-तीन बार दोनों के बीच ऐसी तकरार होना आम बात थी।

मधुरेश ने देखा कि मयंक अन्दर नहीं गया था। वह बैठक में ही बैठा हुआ था। अपने पापा को देखकर मयंक बोला, “पापा जी थोड़ी देर यहीं बैठक में ही बैठ जाइए, अन्दर का पारा बाहर के पारे से भी अधिक चढ़ा हुआ है।“ मधुरेश धम्म से वहीं कुर्सी पर बैठ गये। प्यास के मारे उनका गला सूखा जा रहा था। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि अन्दर के पारे को शान्त करने के लिए वे क्या करें ? उनके चेहरे पर जमाने भर की पीड़ा सिमट आई थी ।इस समय बे दुनिया के सबसे दयनीय प्राणी लग रहे थे।

सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण

News Update Up
Author: News Update Up

Leave a Comment

READ MORE

READ MORE