लघुकथा : जगमगाते दीप

सावित्री काम से लौट रही थी। आज दीपावली थी, इसलिए हर घर में और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही काम था। इसलिए सबके यहां काम निपटाते-निपटाते शाम हो गई थी। दीपावली होने के कारण पूरा शहर खुशी और उल्लास में डूबा हुआ था।

मगर जैसे-जैसे सावित्री अपनी झोपड़ पट्टी के पास पहुंच रही थी उसका मन उदासी से भरता जा रहा था। काम पर आते समय सावित्री के बेटे ने कहा था-“माँ, मैं भी दीपावली पर दूसरे बच्चों की तरह ढेर सारे पटाखे चलाना चाहता हूँ। मुझे भी खाने के लिए मिठाई और चाकलेट चाहिए।“

सावित्री ने उससे वादा किया था कि वह लौटते समय उसके लिए दोनों चीजें लेकर आएगी।

रोहित के चेहरे पर खुशी की अनोखी चमक आ गई थी और वह झोपड़ पट्टी में खेलने में मगन हो गया था।

सावित्री के पति का तीन साल पहले एक एक्सीडेन्ट में निधन हो गया था। उस समय रोहित केवल चार साल का था। मासूम रोहित की जिम्मेदारी सावित्री के कंधों पर आ गई थी। सावित्री ने कुछ घरों में बर्तन धोने का काम शुरू कर दिया था और किसी तरह से गृहस्थी की गाड़ी चल निकली थी। पिछले कुछ दिनों से बुखार आ जाने के कारण काम पर नहीं जा पाई थी। दवाई में सारा पैसा खर्च हो गया था।

सावित्री ने आज दो-तीन घरों में कुछ रुपए मांगे थे जिससे रोहित के लिए पटाखे और मिठाई खरीद सके मगर दीपावली का दिन होने के कारण सबने रुपए देने से मना कर दिया था। सावित्री को समझ नहीं आ रहा था कि वह रोहित से क्या बहाना करेगी।

सावित्री की झोपड़ पट्टी आने वाली ही थी। उसे ऐसा लग रहा था कि मानो उसके पैर एक-एक क्विंटल के हो गये हों। रोहित के बारे में सोच-सोच कर उसका दिल बैठा जा रहा था।

रोहित झोपड़ पट्टी के दरवाजे पर ही बैठा हुआ था। सावित्री को देखते ही वह उससे लिपट गया। फिर उसने सावित्री से पूछा-“माँ मेरे पटाखे और मिठाई कहां है ?“ सावित्री को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बहाना बनाये ?

सावित्री को चुप देखकर रोहित जोर-जोर से रोने लगा। सावित्री को उस पर बड़ा तरस आ रहा था। उसने रोहित को बाहों में भरकर अपने सीने से चिपटा लिया, और वह खुद भी सुबक-सुबक कर रोने लगी।

इधर माँ को इस तरह रोता देख रोहित अवाक रह गया था। उसने हैरानी से माँ की ओर देखा। माँ की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे।

रोहित कुछ देर तक एकटक माँ को देखता रहा। फिर वह माँ के गले से लिपटते हुए बोला-“रोओ मत माँ, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे न पटाखे चाहिए और न मिठाई, बस तुम चुप हो जाओ माँ। मैं तुम्हें रोता नहीं देख सकता।

पूरा शहर झालरों की रोशनी में जगमगा रहा था। सावित्री ने अभी तक बल्व भी नहीं जलाया था, जिससे उसकी झोपड़ पट्टी में अभी तक अंधेरा पसरा हुआ था, मगर नन्हें रोेिहत की बातें सुनकर उसकी आँखों में खुशी के दीप जगमगा उठे थे।

साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्यका

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