लघुकथा – छाता

मैं एक कार्यक्रम से लौट रहा था। दोपहर के दो बज गए थे। सूरज मानो आग उगल रहा था। गर्मी के मारे बुरा हाल था। मैं जल्दी से घर पहुँच जाना चाहता था। तभी मोटर साइकिल का पिछला पहिया हल्के-हल्के हिलने सा लगा। मैंने मोटर साइकिल खड़ी की। मोटर साइकिल का पिछला पहिया पंक्चर हो गया था। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई। दूर-दूर तक पंक्चर जोड़ने की कोई दुकान नहीं थी। घर अभी दो किलोमीटर दूर रह गया था। मरता क्या ना करता, मैं मोटर साइकिल को घसीटते हुए घर की ओर चल दिया। कुछ दूर चलने पर ही मेरा सारा शरीर पसीने से तर-बतर हो गया। अभी मैं आधा किलोमीटर दूर ही पहुंचा था कि मुझे सड़क के किनारे एक बड़े से छाते के नीचे एक पंक्चर जोड़ने वाला दिखाई दिया। मैंने राहत की श्वांस ली। उसके पास जाकर मैंने मोटर साइकिल खड़ी कर दी और उससे पंक्चर जोड़ने को कहा। उस समय उसके छाते के नीचे पड़े स्टूल पर एक लेडी बैठी हुई थी और वह तपती धूप में बैठा हुआ उनकी स्कूटी का पंक्चर जोड़ रहा था। जब वह लेडी चली गई तो उसने मुझे छाते के नीचे बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया और वह अपने काम में लग गया। मैंने देखा कि उसकी उम्र साठ वर्ष के आस-पास रही होगी। धूप के मारे उसके माथे से पसीना टपक रहा था। मैंने उससे पूछा, “तुमने इतना बड़ा छाता लगा रखा है, मगर तुम्हें तो पूरे दिन धूप में ही काम करना पड़ता है।“ “अगर मैं छाते के नीचे बैठा रहूँगा, तो मेरा और मेरे बच्चों का पेट कैसे भरेगा साहब। वह मेरी ओर देखते हुए बोला, उसके प्रष्न ने मुझे निरूत्तर कर दिया था। वह अपने काम में लगा रहा और कुछ ही देर में उसने पंक्चर जोड़ दिया।

मैंने उसकी मजदूरी के पैसे देने के बाद उसे दस रुपये चाय के लिए देने चाहे मगर उसने रुपए लेने से साफ इनकार कर दिया। वह बोला-“साहब! मैं केवल अपनी मेहनत के ही पैसे लेता हूँ।“ मैंने दस का नोट जेब में रख लिया और मोटर साइकिल स्टार्ट करने लगा। तभी वह मेरे पास आया और बोला-“साहब ! मैं एक शर्त पर आपके रुपयों की चाय पी सकता हूँ।“ “वह क्या ?“ मैंने उसकी ओर देखते हुए पूछा। “आपको भी मेरे साथ चाय पीनी पड़ेगी।“ वह बोला।
मैं मोटर साइकिल से नीचे उतर आया और उसे दस-दस के दो नोट देते हुए कहा-“ठीक है, जाओ दो चाय ले आओ।“ “नहीं साहब, एक की ही दो हो जायेंगी।“ यह कहकर वह उनमें से एक नोट लेकर तीर की तरह चाय के खोखे की ओर दौड़ पड़ा। थोड़ी देर में ही वह दो कपों में चाय ले आया। मैं स्टूल पर बैठकर उसके साथ चाय पीने लगा। “एक बात कहूँ साहब ?“ उसने मेरी ओर देखते हुए पूछा। “हाँ-हाँ कहो।“ मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया। वह बोला-आज मुद्दतों बाद आप जैसे किसी साहब ने मेरे साथ बैठकर चाय पी है। आपकी इस छोटी-सी बात ने मेरे दिल को कितनी बड़ी खुषी दी है, मैं बता नहीं सकता।“ मैं हैरानी से उसके चेहरे की ओर देख रहा था।

सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण

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