ट्रेन से उतरकर मास्टर राजबहादुर एस.एस.पी. बंगले की ओर चल दिए। उनकी बहू यहां इस जनपद की एस.एस.पी. थी। उनका बेटा पड़ोस के जिले में डी.ए म. था। वे अपने बहू-बेटे से मिलने यहां आए थे। कई साल पहले वे प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हो चुके थे। उनके बेटे बहू ने कई बार कहा कि पापा जी अब आप हमारे साथ ही रहिए मगर वे बड़े सीधे स्वभाव के आदमी थे और उनका मन गांव में ही रमता था।
एस.एस.पी. का बंगला आ गया था। रिक्शे वाले को पैसे देकर उन्होंने कालबेल बजाई। एक महिला कांस्टेबिल ने आकर गेट खोला। उसने प्रश्नवाचक निगाहों से उन्हें देखा और पूछा, “कहिए क्या काम है ?“
“मैं तुम्हारी मेम साहब का ससुर हूँ और गांव से उनसे मिलने आया हूँ।“ उन्होंने बड़ी सहजता से उत्तर दिया।
यह सुनकर महिला कांस्टेबिल ने उन्हें नमस्ते की और आदर पूर्वक उन्हें ले जाकर ड्राइंगरूम में बैठा दिया।
उस दिन मैडम के यहां किटी पार्टी थी, इसलिए ड्राइंगरूम में काफी महिलाएं जमा थीं। उनमें कुछ जिले की महिला अधिकारी थीं और कुछ उनके मातहतों की पत्नियां। सभी मस्ती के मूड में थीं। महिला कांस्टेबिल मैडम को बुलाने अन्दर चली गई। वह वहां मौजूद महिलाओं को यह बताना भूल गई कि यह मैडम के ससुर हैं।
मास्टर राजबहादुर आराम से सोफे पर बैठ गए। वे पाजामा-कुर्ता पहने हुए थे और सिर पर गांधी टोपी थी। पैरों में हवाई चप्पल और हाथ में कपड़े का सिला हुआ थैला था। कुछ मिलाकर उनकी वेशभूषा ड्राइंगरूम के परिवेश से बिल्कुल मेल नहीं खा रही थी।
एक महिला बोली, “यह बुड्ढा कौन है ? बिल्कुल देहाती लग रहा है।“
दूसरी बोली, “ऐसा मालूम पड़ रहा है मानो किसी सर्कस से छूट कर आया है।“ इस पर सब ठहाका लगाकर हंस पड़ीं।
एक मार्डन सी दिखने वाली महिला बोली, “अकड़ तो देखो, ऐसे बैठा है मानो इसी का बंगला है। मास्टर राजबहादुर अपने को बड़ा असहज सा महसूस कर रहे थे।
तभी एस.एस.पी. मैडम वहां आईं। मास्टर राजबहादुर को देखकर उन्होंने अपना सिर दुपट्टे से ढका और बड़ी श्रद्धा से उनके पैर छुए और उनसे पूछा, “रास्ते में कोई कष्ट तो नहीं हुआ पापा जी ? आप फोन कर देते तो मैं स्टेशन पर गाड़ी भेज देती।“
“कोई कष्ट नहीं हुआ बेटी।“ मास्टर राजबहादुर बोले। अब वे काफी आश्वस्त नजर आ रहे थे और उनके चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई थी।
साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्यकार