ईद की छुट्टियाँ बिताकर मैं घर से लौट रहा था। बस से उतर कर मैं रिक्शे में बैठ गया। मुझे घर पहुंचने की जल्दी थी इसलिए रिक्शे वाले से मैंने रिक्शा तेज चलाने को कहा। रिक्शेवाला थोड़ी दूर तक तो रिक्शा तेज चलाता रहा, परन्तु फिर उसकी रफ्तार धीमी पड़ गयी। वह बुरी तरह से हांफने लगा। मैंने रिक्शे वाले को ध्यान से देखा। तीस-चालीस साल की उम्र, दुबला-पतला शरीर, फटा-पुराना पाजामा, कमीज, पैर में हवाई चप्पल, रुखे-सूखे बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी।
मैंने पूछा, “तुम्हारा क्या नाम है भाई ?“
“मेरा नाम शाकिर है बाबू जी।“ वह धीमे स्वर में बोला था।
“तुम्हारी तबियत कुछ खराब सी लग रही है शाकिर ?“ मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से उसकी ओर देखा।
“हाँ बाबू जी। थोड़ा बुखार सा है।“
मुझे रिक्शेवाले से कुछ हमदर्दी सी हो गई थी। मैंने उसका शरीर छूकर देखा। उसका शरीर तवे के समान तप रहा था। मैंने हैरानी से पूछा, “अरे, तुम्हें इतना तेज बुखार है और तुम रिक्शा चला रहे हो ?“
रिक्शेवाले ने अजीव नजरों से मेरी ओर देखा था फिर वह बोला, “क्या करें बाबू जी, किसी तरह पेट तो भरना ही है।“
“तुम्हें कब से बुखार है शाकिर ?“ मैंने उसके चेहरे की ओर देखते हुए पूछा।
शाकिर ने मुझे शहरी बाबू समझकर पहले तो अपनी बात मुझे बताने में आनाकानी करता रहा। मगर मेरे बार-बार कुरेदने पर उसने बतलाना शुरू किया। उसकी कहानी बड़ी दर्द भरी थी।
ईद से पहले दिन की बात थी। शाम का वक्त था। मैं आखिरी फेरे के लिए सवारियों के इन्तजार में स्टेशन पर खड़ा था। अगले दिन मुझे ईद पर गाँव जाना था। मैंने महीने भर के दो-ढाई हजार रुपये जोड़ लिए थे। मैं बार-बार रुपए गिनकर अपनी तसल्ली कर लेता था। मैं सोच रहा था, जो दस-बीस रुपए और मिल जायें तो और अच्छा है, बच्चों के लिए खाने को कुछ लेता जाऊंगा।
तभी एक बस आकर रुकी थी। उसमें से उतर कर कुछ सवारियां मेरे रिक्शे में आकर बैठ गईं। एक बाबू जी, उनकी घरवाली और दो बच्चे थे, साथ में काफी सामान भी था। वे बोले, “तुम्हें पचास रुपए मिलेंगे। जल्दी से हमें शहर पहुंचा दो।“
मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ और रिक्शा लेकर शहर की ओर चल दिया। मैं पैडल पर पैडल मारे तेजी से रिक्शा दौड़ाए चला जा रहा था। बाकी रिक्शे एक-एक करके पीछे छूटते चले जा रहे थे। मैंने एक मोड़ पर रिक्शा मोड़ा ही था कि अचानक एक साइकिल वाला सामने से आ गया। उसको बचाने के चक्कर में मेरा सन्तुलन बिगड़ गया। साइकिल वाला तो बच गया, मगर मेरा रिक्शा पलट गया। सवारियां दूर जा गिरी थीं। बाबू जी का कीमती सामान सड़क पर बिखर गया था। चोट मेरे भी लगी थी मगर सवारियों की यह दुर्दशा देखकर मैं अपना दर्द भूल गया था।
मेरे चारों ओर भीड़ इकट््ठा हो गई थी। लोगों ने मुझे पकड़ लिया था। सब लोग कह रहे थे कि गलती इस रिक्शेवाले की ही है। यह बहुत तेज रिक्शा चला रहा था। सवारियों की चीख-पुकार सुनकर भीड़ का गुस्सा और बढ़ता जा रहा था। मैं अपने बचाव के लिए लोगों को सारी बातें चीख-चीख कर बता रहा था। मगर मेरी गुहार कोई नहीं सुन रहा था।
भीड़ में से कुछ लोग पकड़कर मुझे थाने ले जाने लगे थे। मगर बाबू जी की घरवाली शायद थाने और कचहरी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती थीं, इसलिए उन लोगों ने मुझे थाने जाने से रोक दिया था।
बाद में कुछ दूसरे लोगों ने मेरे सारे रुपए उन बाबू जी को दिलाकर उनके नुकसान की भरपाई कर दी थी और मामला रफा-दफा करा दिया था। वे लोग दूसरा रिक्शा लेकर चले गए। लोगों की भीड़ भी छट चुकी थी। मैं काफी देर तक बुत बना वहीं खड़ा रहा और फिर धीरे-धीरे रिक्शा घसीटता हुआ चल दिया था। रिक्शे का एक पहिया मुड़ गया था।
रिक्शा लेकर जब मैं मालिक के पास पहुंचा तो काफी देर तक उसकी गालियां और फटकार सुननी पड़ी थी। कमरे पर आकर मैं बिना कुछ खाए-पिए सो गया था।
दूसरे दिन ईद थी। सुबह से ही शहर में चारों ओर गहमा-गहमी शुरू हो गई थी। लोक खुशी-खुशी नए कपड़े पहने ईदगाह जा रहे थे। मगर मैं अपने कमरे में बैठा खून के आंसू बहा रहा था। मुझे अपने बीवी बच्चों की याद सता रही थी। चार-पाँच दिन पहले ही मेरी बीवी का खत भी आया था। खत में उसने ईद पर घर जरूर आने के लिए लिखा था। मगर पास में पैसा न होने के कारण मैं परकटे पक्षी की भांति फड़फड़ा रहा था।
मेरे पास एक भी पैसा नहीं था। भूख के मारे आतें ऐठीं जा रही थीं। रिक्शा मालिक रिक्शे का पहिया टेढ़ा हो जाने से पहले ही खफा था। उसका एक दिन का किराया भी बाकी था। बड़ी मिन्नतें करने पर उसने बीस रुपये का नोट मुझे दिया। शाम को मैं ढाबे पर उन रुपयों की रोटी खाकर सो गया। दूसरे दिन मैं सुबह सोकर उठा तो मुझे बहुत तेज बुखार था। मैं सारा दिन बिना कुछ खाए-पिए पड़ा रहा। आज कुछ बुखार हल्का मालूम पड़ा इसलिए मैं रिक्शा लेकर चला आया। आज कुछ रुपए मिल गए हैं जिससे रिक्शे के नुकसान और दो दिन के किराये की भरपाई हो जाएगी।
बाबू जी मैं यह सोच-सोच कर परेशान हूँ कि ईद पर मेरे घर न जाने से मेरी बीवी पर क्या गुजर रही होगी ? घर का खर्चा कैसे चल रहा होगा ? आज मेरी बीवी का खत आया है। बाबू जी मुझको पढ़ना नहीं आता है। मेरा यह खत पढ़कर सुना दो। कुछ तसल्ली बंध जाएगी। उसने एक मुड़ा-तुड़ा सा खत मेरे हाथ में थमा दिया था, मैं खत पढ़ने लगा, खत में लिखा था-
मेरे सरताज,
परबरदिगार से तुम्हारी सेहत और सलामती के लिए हरदम दुआ मनाती रहती हूँ और ईद पर घर न आने से मन में बहुत चिन्ता लगी हुई। त्योहार भी फींका-फींका सा रहा। बच्चे नए कपड़े बनवाने को मचलते रहे और अपने अब्बा को याद करते रहे।
तुम जो रुपए दे गए थे वे सब खर्च हो गए हैं। दुकानदार राशन उधार देने से मना कर रहा है। वह कहता है कि अभी तुम्हारा पिछला हिसाब चुकता नहीं हुआ है। दो-चार दिन के लिए राशन पड़ोस से मांग लिया है मगर इस तरह ज्यादा दिन काम नहीं चल पाएगा। अम्मा की दवाई खत्म हो गई है जिससे उनकी खांसी फिर जोर पकड़ गई है। बाकी सब खैरियत है। यह खत मैं सलीम से लिखवाकर डलवा रही हूँ। खत मिलते ही जल्दी चले आना। मेरी निगाहें दरवाजे पर ही टिकी रहेंगी।
अच्छा खुदा हाफिज !
तुम्हारे इंतजार में
तुम्हारी सकीना।
पत्र पढ़कर मैंने शाकिर को वापस दे दिया था। शाकिर बुत बना खड़ा था। चिन्ता की लकीरें उसके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थीं। मुझे उस पर बड़ा तरस आ रहा था।
मैंने उससे पूछा, “तुम इतने बुखार में रिक्शा चला रहे हो शाकिर, अगर बीमारी बढ़ गई तो क्या होगा ? कैसे अपने बीवी बच्चों के पास पहुंचोगे ?“
शाकिन ने एक गहरी श्वांस ली। फिर वह बोला, “कुछ नहीं होगा बाबूजी। मालिक बड़ा कारसाज है। वह सबकीे सुनता है। सब ठीक हो जाएगा।“ उसके चेहरे पर विश्वास की अनोखी चमक दिखाई दे रही थी। वह फिर रिक्शा चलाने लगा था।
कुछ देर बाद मेरा ठिकाना आ गया था। मैंने शाकिर को किराए के अलावा पचास रुपए का एक नोट अलग से दिया था। पहले वह ना-नुकुर करता रहा फिर उसने रुपए ले लिए थे और मुझे सलाम करके चला गया था।
मैं कुछ देर वहीं ठिठका खड़ा रहा था। मेरे जेहन में शाकिर के घर का एक काल्पनिक चित्र उभरा था। “पति के इन्तजार में दरवाजे पर खड़ी सकीना, नए कपड़ों के लिए मचलते बच्चे, बिस्तर पर पड़ी बीमार माँ और राशन के लिए इनकार करता बनिया।“
मन का पोर-पोर पीड़ा से भर उठा था। थके कदमों से मैं घर की ओर चल दिया था।
साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
वरिष्ठ साहित्यकार