स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम बलिदानी एवं प्रखर पत्रकार सूफी अम्बा प्रसाद

देश की आजादी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई। लाखों व्यक्तियों ने इसके लिए त्याग किया, हजारों जेल गए, सैकड़ों ने अपनी जान गँवाई। देश आजाद हो गया और अपना सर्वस्व दाँव पर लगाने वालों तक को हम भूल गए।
ऐसे ही कुछ गुमनाम सच्चे देषभक्तों में एक नाम है-सूफी अंबा प्रसाद। सूफी जी ने अपना घर छोड़ा, अपनी संपत्ति जब्त कराई, जेल की यातनाएँ झेली, देश छोड़ा और अंत में अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए।
सूफी अंबा प्रसाद, लाला हरदयाल और सरदार अजीत सिंह के साथियों में से एक थे, जिन्होंने भारत में अपनी लड़ाई लड़ने के बाद भारत से बाहर अन्य देशों में भी आजादी की अलख जगाई। इस देश को आजाद देखने के लिए हर तरह का कष्ट झेलते हुए, अंततः आजादी का सपना मन में सँजोए चले गए। ऐसे वीर स्वतंत्रता-सेनानी को ईरान (जहाँ उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए) ने फिर भी याद रखा, हम उन्हें लगभग भूल चुके हैं। उनका नाम स्वतंत्रता-संग्राम के इतिहास के अँधेरों में गुम न हो जाए और उनकी देन को हम भूल न जाएँ, इसी उऋण होने का उपक्रम है यह छोटा सा आलेख।
सूफी अंबा प्रसाद का जन्म सन् 1858 में मुरादाबाद (उ.प्र.) में हुआ था। उनका दाहिना हाथ जन्म से ही नहीं था। पर एक हाथ से काम चलाते हुए भी वे कभी न थके-हारे, न निराश हुए। उलटे इस बात को हँसी में उड़ा देते थे, ”अरे भाई, हमने सन् 1857 में भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया था। उसी में एक हाथ कट गया, मृत्यु हो गई, पुनर्जन्म हुआ और इस जन्म में हम कटा हाथ लेकर आ गए।“
मुरादाबाद और बरेली में प्राथमिक शिक्षा लेकर वे पंजाब चले गए। सन् 1869 में लुधियाना जिला में जब स्वतंत्रता-प्रेमी कूका विद्रोही तोप के सामने खड़े करके उड़ाए गए थे, उस समय वे जालंधर में थे और उनकी आयु ग्यारह वर्ष की थी। उनके किशोर मन पर इसका गहरा असर हुआ और इस भावभूमि में एक भावी स्वतंत्रता-सेनानी का बीज पड़ गया।
एफ.ए. पास करने के बाद उन्होंने वकालत की पढ़ाई की, पर प्रैक्टिस नहीं की। इसलिए कि तब तक आपके जीवन का ध्येय निश्चित हो चुका था-लेखन, पत्रकारिता और स्वतंत्रता-संग्राम यानी देश के लिए तन-मन-धन से भी लड़ाई और कलम द्वारा भी लड़ाई। सन् 1890 में मुरादाबाद लौटकर उन्होंने अपना उर्दू साप्ताहिक पत्र ‘जाम्युल-इलूम’ का प्रकाशन शुरू किया। हिंदू-मुस्लिम एकता के कट्टर हिमायती सूफीजी का लिखा प्रत्येक शब्द उनके अंदर की गहराई से निकलता था और उसमें हास्य का भी भरपूर पुट होता था। उनकी इस नवीन शैली को पसंद किया गया और उनका पत्र उत्तरोत्तर लोकप्रिय होता गया।
सूफीजी अपने आपको ‘राजनीतिक एडवोकेट’ कहते थे। स्वाभाविक था कि गुलामी के उन दिनों उनके पत्र में लिखे लेखों और संपादकीय अग्रलेखों पर अंग्रेजों के कोपभाजन की गाज गिरती। सन् 1897 में उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर उन्हें डेढ़ वर्ष की जेल की सजा दी गई। सन् 1899 में वे छूटकर आ गए। पर विद्रोही स्वभाव कहाँ चुप बैठता। वे फिर उत्तर प्रदेश की छोटी-छोटी रियासतों के रेजीडेंटों और अफसरों की मिली भगत से पनपे भ्रश्टाचार का भंडाफोड़ करने लगे। इस पर अंग्रेज प्रशासकों द्वारा उन्हें झूठे आरोप में फँसाकर रास्ते से हटाया जाना भी स्वाभाविक ही था।
सूफीजी की सारी जायदाद जब्त कर ली गई और उन्हें छह साल के कठोर कारावास का दंड सुना दिया गया। जेल में उन्हें अमानवीय यातनाएँ मिलीं और अनेक कष्ट सहन करने पड़े। उन्हें एक छोटी सी गंदी कोठरी में बंद किया गया। वहाँ पानी तक का ठीक प्रबंध नहीं था। बीमार पड़ने पर दवा भी नहीं दी जाती थी। जेलर आता, वे शिकायत करते तो जेलर हँसकर कहता, ”सूफी, तुम अभी तक जिंदा हो, यही गनीमत समझो।“ जैसे-तैसे छह साल की सजा काटकर सन् 1906 में रिहाई होने पर ही उन्हें इन यातनाओं से भी मुक्ति मिली।
जेल से छूटते ही वे हैदराबाद चले गए, क्योंकि निजाम से उनके अच्छे संबंध थे। निजाम ने उन्हें ठीक से रहने के लिए एक अच्छा मकान बनवा दिया। लेकिन सूफी तो फक्कड़ ठहरे! मकान तैयार हो गया तो निजाम ने सूफीजी को बुलवाकर कहा, ”यहाँ आपको कोई कष्ट नहीं होगा, आराम से रहिए। आपके लिए मकान तैयार हो गया है।“ सूफीजी अपने वस्त्र आदि उठा लाए और आकर कहा, ”हम भी तैयार हो गए हैं।” और कहने के साथ ही वे तुरंत चल दिए। निजाम ने पूछा, कहाँ जाएँगे?“ सूफीजी का सहज उत्तर था, ‘पंजाब में कुछ काम हो रहा है, वहीं जाऊँगा। यहाँ रहकर क्या करूँगा?“ और वे पंजाब चले गए। वास्तव में बंगाल से उठी ‘स्वदेशी’ की लहर उन दिनों पंजाब तक पहुँच चुकी थी। सूफीजी को लगा, उनका कार्यक्षेत्र वही हो सकता है।
लेकिन सूफीजी वहाँ भी नहीं टिके। ‘पैसा अखबार’ ने उन्हें एक सौ पचहत्तर रुपए और ‘वतन अखबार’ ने उन्हें एक सौ पच्चीस रुपए मासिक वेतन देना चाहा, पर उन्होंने ‘हिन्दुस्तान’ पत्र में साठ-साठ रुपए मासिक पर काम करना मंजूर किया, ”अरे, हम ज्यादा वेतन का क्या करेंगे? खाने-पीने भर को मिल जाए और अपने विचारों की अभिव्यक्ति का अवसर मिले, वही हमारे लिए काफी होगा।”
‘हिन्दुस्तान’ में काम करते हुए उनका साबका कई बार अंग्रेज अफसरों से पड़ा था, तो उनकी चतुराई और वाक्पटुता देखकर सरकार की ओर से उन्हें जासूसी विभाग में एक हजार रुपए मासिक वेतन पर भी प्रस्ताव मिला, लेकिन सूफीजी ने इस सुख-सुविधा पर गरीबी और जेल को ही वरीयता दी। ‘हिन्दुस्तान’ के संपादक उनके लिखे लेखों में काट-छाँट करते थे, तो उन्होंने ‘हिन्दुस्तान’ की नौकरी भी छोड़ दी और सरदार अजीत सिंह व साथियों की ‘भारत माता सोसाइटी’ से जुड़ गए।
9 मई, 1907 को लाला लाजपतराय गिरफ्तार हो गए थे और सरदार अजीत सिंह के नाम भी वारंट निकल गया था। 2 जून तक अजीत सिंह भूमिगत रहे, फिर पकड़े गए। ‘भारत माता सोसाइटी’ का काम रुक गया तो सूफीजी अपने अन्य मित्रों से मिलने रुड़की चले गए। इधर, पंजाब में धर-पकड़ आरंभ हुई तो सरदार अजीत सिंह के भाई सरदार किशन सिंह और ‘भारत माता सोसाइटी’ के मंत्री अनंत किशोर मेहता जी को साथ लेकर सूफीजी नेपाल चले गए। वहाँ के एक प्रशासक श्री जंगबहादुर उनसे अच्छी तरह पेश आए। पर सूफीजी को आश्रय देने के कारण बाद में उन्हें अपने पद और संपत्ति से हाथ धोना पड़ा। सूफी जी भी वहाँ से पकड़कर वापस लाहौर ले जाए गए। उन पर अभियोग लगाकर मुकदमा चलाया गया, पर अपनी वाक्पटुता से वे निर्दोष सिद्ध हुए और छूट गए।
लाहौर में ‘भारत माता सोसाइटी’ के दिनों के उनके कुछ लेख लाला पिंडी दास के पत्र ‘इंडिया’ में छपे थे। वह परिचय उनके काम आया। तब तक सरदार अजीत सिंह भी जेल से छूटकर आ गए थे। अतः मंडली के वे सब सदस्य, जो जेल से बाहर थे, सूरत कांग्रेस में शामिल हुए और सन् 1908 में ‘भारत माता बुक सोसाइटी’ की स्थापना की गई, जहाँ से छपने वाले राजनीतिक व राष्ट्रीय साहित्य के प्रकाशन का अधिकांश काम सूफीजी ही देखते थे।
एक दिन लाहौर के डिप्टी कमिश्नर ने सरदार अजीत सिंह को बुलवाया और धमकी दी, ”राजनीति से अलग रहो, वरना…..।” अजीत सिंह न डरे, न झिझके, “वरना क्या, तुम मुझे सूली पर चढ़ा देना।“ उसने कहा, “क्या तुम ईसा हो कि सूली पर चढ़कर अमर हो जाना चाहते हो?“ लौटकर अजीत सिंह ने सूफीजी को यह बात बताई। बस, सूफीजी ‘बाइबल’ लेकर बैठ गए। कुछ दिनों बाद ‘बागी मसीह’ नामक पुस्तक लिख डाली और प्रकाशित भी करवा ली। पुस्तक जब्त कर ली गई। पर सूफीजी का मकसद पूरा हो गया।
उसी वर्ष लोकमान्य तिलक पर अभियोग लगा, उन्हें छह वर्ष का कारावास दंड दिया गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए इस मंडली के सभी सदस्य गेरुए वस्त्र पहनकर साधु बन गए। ‘तिलक आश्रम’ खोलना चाहते थे, इरादा सफल न होने पर पहाड़ों की तरफ यात्रा करने निकल पड़े। एक जगह टिके तो पीछे-पीछे आ रहा एक सूट-बूट धारी व्यक्ति आकर चरणों में बैठ गया। पूछा, “बाबाजी, आप कहाँ रहते हैं?“
सूफी ने रोब से कहा, रहते हैं तुम्हारे सिर में। जा, हमारे लिए खाने-पीने की चीजें लेकर आ।“ वह अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ लेकर आया। खा-पीकर सूफीजी ने उसे पास बुलाया, ”क्यों बे, हमारा पीछा छोड़ेगा कि नहीं?“
”मैं आपसे क्या कहता हूँ बाबाजी, नाराज क्यों होते हैं?”
सूफी जी ने कहा, “चालाकी छोड़, सीधे-सीधे बता, आया है न जासूसी करने। जा, कह दे अपने बाप से, हम पहाड़ पर गदर करने जा रहे हैं।“ वह घबराकर पैरों पर गिर पड़ा, ”क्षमा करें बाबाजी, पेट की खातिर सब करना पड़ता है।“
सन् 1909 में सूफी जी ने ‘पेशवा’ अखबार निकाला। बंगाल में उठे ‘बंग-भंग’ व ‘स्वदेशी आंदोलन’ की आँच अब पंजाब तक भी पहुँच रही थी। खतरा भाँपकर सरकार ने दमन-चक्र चलाना शुरू किया। पहले लाला हरदयाल कोदेश छोड़ना पड़ा, फिर सरदार अजीत सिंह और जियाउल हक को लेकर सूफीजी ईरान चले गए। जाने से पहले ‘पेशवा’ के लिए बहुत से लेख लिखकर रख दिए। पूछने पर सहायक से कहा, ”इसलिए कि पीछे पत्र बंद होने से सरकार को हमारे जाने की भनक लग जाएगी और वे हमें मार्ग में ही पकड़ लेंगे।” रास्ते में जियाउल हक की नीयत बदल गई। उसने सोचा, इन्हें पकड़वा दूँ तो सजा से भी बच जाऊँगा और कुछ इनाम भी मिल जाएगा। परंतु सूफीजी की निगाह से उसकी यह नीयत छुपी न रह सकी। वे ताड़ गए और उन्होंने उसे एक काम के बहाने आगे भेज दिया। वह वहाँ रिपोर्ट करने गया और स्वयं ही पकड़ा गया। ये दोनों वहाँ से बच निकले।
पर आगे की यात्रा भी आसान न थी। अंग्रेेजों के सिपाही इन्हें खोजने के लिए पीछे लगे थे। इसलिए मार्ग में इन्हें कई तरह के कष्ट सहन करने पड़े थे। कहा जाता है कि जब वे एक स्थान पर घिर गए तो उस स्थान पर ठहरे व्यापारियों के एक काफिले की शरण में गए। उस काफिले की ऊँटों पर सामान से भरे बहुत से संदूक लादे जा रहे थे। व्यापारियों ने इनकी मदद की। संदूकों में हवा के लिए छेद करके सूफीजी और सरदारजी को उनमें बंद किया गया और वहाँ से बचाकर निकाला गया।
इसके बाद ईरान में किसी अमीर के घर ठहरे। पता चलने पर वह घर घेर लिया गया। तब भी दोनों को बुर्का पहनाकर ‘जनाना’ में बैठा दिया गया। तलाशी के समय जब स्त्रियों की भी तलाशी ली जाने लगी तो घर के लोग लड़ने-मरने को तैयार हो गए, ”किसी स्त्री को बेपरदा नहीं होने देंगे।“ इस तरह बुरके उतारने नहीं दिए गए और वह वहाँ भी बच गए। फिर एक फोटोग्राफर ने भी उन्हें अपने घर में आश्रय दिया, जहाँ वे बहुत दिनों तक रहे। बाद में ‘प्रभा’ पत्रिका के मुखपृष्ठ पर ईरानी वेश में उनका छपा चित्र उसी फोटोग्राफर से प्राप्त हुआ था। खतरा टल जाने पर अजीत सिंह टर्की चले गए। सूफी जी ने वहाँ के राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेना आरंभ कर दिया, क्योंकि उस समय वहाँ भी अंग्रेज अपना प्रभुत्व जमाते जा रहे थे। उन्हीं दिनों सूफी जी ने अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था, ”सरदार साहब को टर्की छोड़ आया हूँ, मेरी ड्यूटी यहीं पर लगी है….आदि।” इस तरह अजीत सिंह के ईरान से चले जाने पर सूफीजी वहाँ अकेले रह गए। वहाँ उन्होंने कई किताबें लिखीं, जो फारसी भाशा में हैं। उन्होंने ‘आबेहयात’ नामक एक पत्र भी निकाला। इस सबसे सूफीजी का प्रभाव वहाँ इतना बढ़ा कि उन्हें सब ‘स्वामी सूफी’ या ‘आका सूफी’ कहने लगे।
सन् 1915 के आस-पास जब ईरान में ब्रिटिश प्रभुत्व के विरोध में उथल-पुथल मची, तो धर-पकड़ में सूफी जी भी अंग्रेजों के हाथ पड़ गए। जब उन्हें मृत्यु-दंड सुनाया गया तो प्रतिष्ठित ईरानियों का एक प्रतिनिधिमंडल उन्हें इस सजा से बचाने के लिए सरकार के पास गया था, किंतु फैसला नहीं बदला गया। सूफी जेल की कोठरी में बंद थे। अगले दिन उन्हें गोली से उड़ा दिए जाने का हुक्म दिया जा चुका था। लेकिन सुबह पहरेदारों ने देखा, सूफी समाधि-अवस्था में बैठे थे और उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। ऐसे योगी व सूफी संत के जनाजे में असंख्य ईरानी जुटे थे और कई दिनों तक वहाँ शोक मनाया गया था। इस तरह की समाधि-मृत्यु के बाद लोगों के दिलों में उनका आदर और बढ़ गया था। अपनेदेश से अधिक ईरानी लोगों ने उन्हें अपनाया और याद रखा। सुनते हैं, सूफीजी की कब्र पर आज भी हर वर्ष लोग जुटते हैं और श्रद्धा से सिर झुकाते हैं।

साभार – सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण

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